SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका म 1 - 8 - 0 - 0 91 एवं तद्व्यतिरिक्त... यहां तद्व्यतिरिक्त द्रव्य विमोक्ष याने निगड (बेडी-केद) आदि से मुक्ति... यहां विभक्ति का व्यत्यय हुआ है... अर्थात् पंचमी के अर्थ में सप्तमी का प्रयोग कीया है... अर्थात् निगड आदि द्रव्यों से विमोक्ष वह द्रव्य विमोक्ष... अथवा द्रव्य के द्वारा (तृतीया विभक्ति) या द्रव्य से (पंचमी विभक्ति) सचित्त-अचित्त मिश्र द्रव्य से विमोक्ष... इत्यादि... तथा क्षेत्रविमोक्ष याने चारकादि (केदखाना) आदि क्षेत्र से विमोक्ष... अथवा क्षेत्र के दान से विमोक्ष... अथवा जिस क्षेत्र में रहकर विमोक्ष पद की व्याख्या की जाय... वह क्षेत्रविमोक्ष... तथा कालविमोक्ष याने जिनालय-चैत्य के महिमादि महोत्सव के दिनों में अमारि की उद्घोषणा अथवा जिस काल में विमोक्ष पद की व्याख्या की जाय वह कालविमोक्ष... नि.२६० अब भाव-विमोक्ष का स्वरूप नियुक्तिकार कहते हैं... भाव-विमोक्ष के दो प्रकार हैं... 1. आगम से एवं 2. नो आगम से भाव विमोक्ष... वहां आगम से भाव विमोक्ष याने ज्ञाता तथा उपयुक्त और नोआगम से भाव विमोक्ष के दो प्रकार हैं... देश से एवं सर्व से... आगम से देश-भावविमोक्ष याने-अविरत सम्यग्दृष्टि का प्रथम अनंतानुबंधि कषाय चतुष्टय से विमोक्ष तथा देशविरतिवाले श्रावक को प्रथम आठ कषाय के क्षयोपशम से, और साधुओं को प्रथम बारह कषायों के क्षयोपशम से तथा क्षपकश्रेणी में जब तक संपूर्ण कषाय क्षय न हो; तब तक देश भाव विमोक्ष... तथा भवस्थ केवलज्ञानी भी भवोपग्राही (चार अघाति) कर्मो की अपेक्षा से देश भाव विमोक्ष हैं और सिद्ध परमात्मा हि सर्व भाव विमोक्ष निक्षेप में जानीयेगा... ___निगडादि का मोक्ष बंध पूर्वक ही माना गया है, अर्थात् पहले निगड में बंधन हो और बाद में निगडादि से मुक्ति... इसी प्रकार आत्मा को कर्मो के बंधन, और बाद में मुक्ति हो... अतः नियुक्तिकार महर्षि यहां कर्मबंध का स्वरूप कहतें हैं... नि. 261 कर्म-वर्गणाओं के द्रव्यों के साथ जीव का जो संयोग उसे बंध कहते हैं और वह कर्मबंध प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध एवं प्रदेशबंध के प्रकार से चार प्रकार का है... पुनः वे भी बद्ध, स्पृष्ट, निद्धत्त एवं निकाचना भेद से चार प्रकार से है... और आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनंतानंत कर्म पुद्गल बंधे हुए हैं और वर्तमानकाल में अनंतानंत कर्म पुद्गल आत्म प्रदेशों के साथ बंधे जा रहे हैं... आत्मा मिथ्यात्व के उदय में आठ प्रकार के कर्मबंध करता है... _अन्यत्र भी कहा है कि- हे भगवन् ! जीव आठ कर्मप्रकृतियां क्यों बांधता है ? हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावरणीय कर्म बांधता है, और दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बांधता है... और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ कर्म प्रकृतियां बांधता है... अथवा... जिस प्रकार स्नेह (चिकाश) से लेपे हुए शरीर में रजः धुली
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy