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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-1 - 3 (212) 105 भूत-प्रांणी क्षर है जब कि- अक्षर कुटस्थ-नित्य है, इत्यादि... इस प्रकार परमार्थ को नहि जाननेवाले लोग इस संसार को “अस्ति" याने "है हि" ऐसा मानकर परस्पर विवाद करतें हैं तथा आत्मा के विषय में भी विवाद करते हैं... जैसे कि- यह सुकृत है; या यह दुष्कृत है ऐसा क्रियावादी मतवाले मानतें हैं... जिसने सर्व संग का परित्याग करके महाव्रत का आचरण कीया है, उसने सुकृत कीया है... तथा पुत्र की प्राप्ति के बिना हि जिसने भोली पत्नी का त्याग कीया है, उसने दुष्कृत कीया है... ...तथा प्रव्रज्या के लिये तत्पर कीसी मनुष्य को कितनेक लोगों ने कल्याण याने अच्छा माना है, जब कि- इस स्थिति में कितनेक लोग ऐसा कहतें हैं कि- पाखंडिओं की बात में आकर नपुंसक ऐसा यह मनुष्य गृहस्थाश्रम के पालन में असमर्थ और पुत्र के अभाव में पापी हि है... तथा.साधु याने सज्जन और असाधु याने दुर्जन यह भी स्वमति कल्पित हि है; ऐसा वे कहतें हैं... इसी प्रकार सिद्धि या असिद्धि तथा नरक या अनरक इत्यादि अन्य बाबतों में भी अपने अपने आग्रह के अनुसार विवाद करते हैं... अर्थात् लोक-जनता की विचारधाराओं को लेकर विभिन्न प्रकार से वाद-विवाद करते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- सृष्टिवादी महेश्वरादि मतवाले कहते हैं कि- यह संपूर्ण लोक कृत्रिम है और आरंभ एवं अंतवाला है तथा प्रमाण ज्ञान से जाना जा शकता है... . तथा कितनेक लोग कहते हैं कि- यह लोक नारीश्वर याने महेश्वर से उत्पन्न हुआ है और कोइ कहते हैं कि- यह संसार सोमाग्नि से उत्पन्न हुआ है और कोइ कहतें हैं कियह लोक द्रव्यादि छह (6) विकल्प स्वरूप है... जब कि- कितनेक लोग कहते हैं कि- यह संसार ईश्वर से बना है, कोइ कहते हैं कि- ब्रह्माजी ने बनाया है, और कपिल मतवाले कहतें हैं कि- यह संपूर्ण विश्व अव्यस्त से उत्पन्न हुआ है, कोइ कहतें हैं कि- यह संसार यादृच्छिक है, और कोइ कहते है कि- यह लोक भूत के विकार स्वरूप है और कोइ कहते हैं कियह संसार अनेकरूप है.... इस प्रकार लोक (संसार) के विषय में अनेक प्रकार के विचार धाराएँ प्रचलित है... इत्यादि... इस प्रकार स्याद्वाद-मत के परिचय के बिना एक अंश को माननेवाले बहोत सारे मत-भेद इस लोक में देखे जाते हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- विभिन्न पदार्थ के विषय में जिन्हों ने स्याद्वाद-मत से तत्त्व का परमार्थ जाना नहि है; वे लोग आपस आपस में (परस्पर) विवाद करते हैं... किंतु जिन्हों ने स्याद्वाद-मत के परिचय से वस्तु-पदार्थ का अस्तित्व, नास्तित्व आदि स्वरूप जानकर नय की विवक्षा से संवाद कीया हैं उनको कोई विवाद है हि नहि... यहां बहोत कुछ कहने योग्य है, किंतु ग्रंथ के विस्तार के भय से संक्षेप में हि कहा है... परंतु सुयगडांग आदि आगम-सूत्रों में यह बात विस्तार से कही गइ है...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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