________________ 106 // 1-8-1-3(212) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 पदार्थ के एक-एक अंश को लेकर चलनेवाले विभिन्न मतवाले लोग परस्पर विवाद करते हुए कहते हैं कि- “हमारा धर्म हि सत्य है" इस प्रकार वे स्वयं हि विनष्ट हुए हैं और अन्य लोगोंका भी विनाश करतें हैं... जैसे कि- कितनेक मतवाले कहते हैं कि- तकलीफ (कष्ट) न हों; वैसे सुख से हो शके वह हि धर्म है, जब कि- अन्य लोग कहते हैं किदुःख सहन करने से हि धर्म होता है... तथा अन्य कितनेक लोग कहते हैं कि- स्नान आदि शौच में हि धर्म है... इत्यादि... और ऐसा भी कहते हैं कि- मोक्ष के लिये हमारा धर्म हि सर्वोत्तम धर्म है, अन्य नहि... इस प्रकार स्वयं हि अधर्म-मार्ग में रहनेवाले वे कुतीर्थिक परस्पर विवाद करते हुए अन्य मुग्ध लोगों को ठगते हैं... अर्थात् सच्चे धर्म से विचलित करतें हैं... अब स्याद्वाद-मत से अन्य कुमतों का निराश (खंडन) करते हुए कहते हैं कि- हे कुतीर्थिक ! आप जो कहते हैं कि- यह लोक है; या नहि है; इत्यादि में कौन हेतु है ? अर्थात् कोइ हेतु नहि है... इत्यादि... अब आप सावधानी से वास्तविक युक्तियुक्त बात सुनो... जैसे कि- यदि यह लोक एकान्तभाव से है, तो “अस्ति" के साथ समानाधिकरण "नास्ति' से यह लोक प्रतिक्षण अलोक भी है; ऐसा मानना चाहिये... और ऐसी मान्यता में लोक हि अलोक होगा... क्योंकि- व्याप्य के सद्भाव में व्यापक का भी सद्भाव मानना होगा... और यदि आप अलोक का अभाव मानतें हैं; तो अलोक के प्रतिपक्ष लोक का भी प्राग् अभाव मानना होगा... अथवा तो लोक सर्वगत है; ऐसा मानना होगा... अथवा लोक है और लोक नहि है... तथा लोक भी नाम मात्र है... तथा अलोक के अभाव में लोक नहि है... इत्यादि किंतु यह सब असमंजस याने अनिष्ट है... तथा लोक के होने के व्यापकत्व में व्याप्य घट-पटादि को भी लोकत्व की प्राप्ति होगी... क्योंकि- व्यापक के सद्भाव में हि व्याप्य का होना संभवित है... तथा “लोक है" ऐसी यह प्रतिज्ञा लोक के साथ अस्ति याने होने-पने का हेतु को लेकर प्रतिज्ञा और हेतु में एकत्व की प्राप्ति होती है, और एकत्व की प्राप्ति में हेतु का अभाव हो जाता है, और हेतु का जब अभाव हो गया हो तो; कौन किस से सिद्ध होगा ? और यदि आप अस्तित्व से अन्य लोक है, ऐसा कहोगे तो प्रतिज्ञा की हानि होती है... अत: एकान्त से लोक के अस्तित्व के स्वीकार में हेतु का अभाव प्रदर्शित होगा... इसी प्रकार “लोक नहि है" ऐसा कहोगे तो भी यह हि दोष होगा... जैसे कि- “लोक नहि है" ऐसा जो कहते हैं, उनको हम कहेंगे कि- क्या आप है या नहि ? यदि आप हैं; तो लोक के अंदर हो या बाहर ? यदि आप लोक के अंदर हो तो फिर आप ऐसा कैसे कहते हो, कि- लोक नहि है ?... यदि आप लोक से बाहार हो, तो फिर खरविषाण याने गद्धे के शींग की तरह आप खुद हि असद्भूत हो जाओगे तो फिर हम किन्हें उत्तर दें ? किनसे बात करें ? इस प्रकार से एकांतवादीओं का स्यादवाद से प्रतिक्षेप करें...