________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8-1- 3 (212) // 107 तथा जिस प्रकार लोक के होने और नहि होने में एकांतवादीओं का वचन हेतु युक्ति रहित है, इस प्रकार ध्रुव-अध्रुव आदि वचन भी हेतु रहित हि हैं... जब स्याद्वाद-मतवाले हम को “अपेक्षा से लोक को होना और नहि होना” ऐसा मानने में उपर कह गये दोष नहि होंगे... क्योंकि- स्व एवं पर की सत्ता का निराकरण एवं स्वीकार में हि वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है... अत: जो वस्तु स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल एवं स्वभाव से “अस्ति' अर्थात् है, वह वस्तु पर द्रव्य-क्षेत्र- काल एवं भाव से “नास्ति' याने नहि है... अन्यत्र भी कहा है कि- स्वद्रव्यादि चार प्रकार से सभी वस्तुओं का अस्तित्व कौन नहि मानेगा ? तथा पर द्रव्यादि चार प्रकार से इसी वस्तुओं का असत् याने नास्तित्व को भी कौन नहि मानेगा ? इत्यादि बहोत विस्तार-अर्थ है; किंतु यहां हमने मात्र शब्दार्थ कहने का हि प्रयास कीया है... इसी प्रकार ध्रुव-अध्रुव आदि वचनों में भी पांच अवयव या दश अवयव के विधान के द्वारा या अन्य कोई प्रकार से एकांत-पक्ष का विक्षेप याने खंडन करके स्याद्वाद-पक्ष की स्थापना स्वयं हि अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से युक्तियुक्त करें... अंब इस सूत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- इस प्रकार उन एकांत-वादीओं का कहा गयाँ धर्म, वास्तव में धर्म हि नहि है, और उनके शास्त्रों की रचना भी युक्तियुक्त नहि है... अब शिष्य गुरुजी को कहते हैं कि- हे गुरुजी ! क्या आप यह बात अपने मन से हि कहते हो ? या किसी अन्य आधार से ? तब गुरुजी कहते हैं कि- हे शिष्य ! यह मैं मेरे मन से नहि कहता हुं, किंतु वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा के मुख से सुनकर मैं यह सब कुछ कहता हुं... .. अथवा तो किस प्रकार से कहा गया धर्म सुप्रज्ञापित होता है ? इस प्रश्न का उत्तर पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को आगे के सूत्र से समझाते हैं... v सूत्रसार : पूर्व सूत्र में जिनमत से असम्बद्ध अन्य मत के भिक्षुओं के साथ परिचय बढ़ाने का जो निषेध किया है, उसका कारण यह है कि- वे धर्म से परिचित नहीं हैं। उनका आचारविचार साधुत्व के योग्य नहीं है। वे हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों से मुक्त नहीं हुए है। वे स्वयं हिंसा आदि दोषों का सेवन करते हैं, अन्य व्यक्तियों से दोषों का सेवन करवाते हैं और दोषों का सेवन करने वाले व्यक्तियों का समर्थन भी करते हैं। इसी तरह वे भोजनादि स्वयं बना लेते हैं, या अपने लिए बनवा लेते हैं। इसी प्रकार वे अग्नि, पानी आदि का आरम्भसमारम्भ भी करते-करवाते हैं। अतः वे किसी भी प्रकार के दोष से निवृत्त नहीं हुए हैं।