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________________ 108 // 1-8-1-3 (212) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दुसरी बात यह है कि- उन्हें तत्त्व का भी बोध नहीं है। क्योंकि- लोक है, लोक नहीं है, लोक ध्रुव है, लोक अध्रुव है, लोक अनादि है, लोक सपर्यवसित-सान्त है, लोक अपर्यवसित-अनन्त है, सुकृत है, दुष्कृत है, पाप है, पुण्य है, साधु है, असाधु है, सिद्धि है, असिद्धि है, नरक है, नरक नहीं है, इन बातों को अन्यमतवाले स्पष्टतया नहीं जानते हैं। कोई इनमें से किसी एक का प्रतिपादन करता है, तो दूसरा उसका निषेध करके अन्य का समर्थन करता है। जैसे वेदान्तदर्शन लोक को एकान्त ध्रुव मानता है, तो बौद्धदर्शन इसे एकान्त अध्रुव मानता है। इसी प्रकार अन्य दार्शनिक भी किसी एक तत्त्व का प्रतिपादन करके दूसरे का निषेध करते हैं। क्योकि- उन्हें वस्तु के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होने से उनके विचारों में स्पष्टता एवं एकरूपता नजर नहीं आती है। जैसे वेदों में विराट् पुरुष द्वारा सृष्टि का उत्पन्न होना माना है। मनुस्मृति आदि में लिखा है कि- सृष्टि का निर्माण अण्डे से हुआ है। पुराणों में विष्णु की नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ और उससे सृष्टि का सर्जन हुआ ऐसा उल्लेख किया गया है। स्वामी दयानन्दजी की कल्पना इससे भिन्न एवं विचित्र है। वे माता-पिता के संयोग के बिना ही अनेक स्त्री-पुरुषों का उत्पन्न होना मानते हैं। ईसाई और यवन विचारकों की सृष्टि के सम्बन्ध में इनसे भी भिन्न कल्पना है। गॉड (इश्वर) या खुदा ने कहा कि- सृष्टि उत्पन्न हो गइ और एकदम सारा संसार जीवों से भर गया। इस प्रकार अन्य तत्त्वों के विषय में भी सबकी भिन्न भिन्न कल्पना है। इसलिए कोई विचारक एक निश्चय पर नहीं पहुंच सका हैं। इसलिए जिन आगम में कहा गया है कि- जिनमत से असम्बद्ध विचारकों के साथ परिचय नहीं रखना चाहिए। क्योंकि- इससे श्रद्धा-निष्ठा में गिरावट आने की सम्भावना है। उपरोक्त तत्त्वों के सम्बन्ध में जैनों का चिन्तन स्पष्ट है। जैसे कि- संसार के समस्त पदार्थ अनेक धर्म वाले हैं, अत: उनका एकान्त रूप से एक ही स्वरूप नहीं होता है। यह लोक नित्य भी है और अनित्य भी है, सादि भी है और अनादि भी है। वह सान्त भी है और अनन्त भी है। भगवती सूत्र में बताया गया है कि- लोक चार प्रकार का है... द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक। द्रव्य और क्षेत्र से लोक नित्य है। क्योंकिद्रव्य का कभी नाश नहीं होता है और क्षेत्र से भी वह लोक सदा 14 रज्जू परिमाण का रहता है। काल एवं भाव की अपेक्षा से वह अनित्य है। क्योंकि- भूतकाल में लोक का जो स्वरूप था, वह वर्तमान में नहीं रहा और जो वर्तमान में है; वह भविष्य में नहीं रहेगा, उसकी पर्यायों में प्रतिसमय परिवर्तन होता रहता है। इसी तरह भाव की अपेक्षा से भी उसमें सदा एकरूपता नहीं रहती है। कभी वर्णादि गुण हीन हो जाते हैं, तो कभी अधिक हो जाते हैं। ' अतः द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा लोक नित्य भी है और काल एवं भाव की दृष्टि से.अनित्य भी है। इसी प्रकार सादि-अनादि, सान्त-अनन्त आदि प्रश्नों का समाधान भी स्याद्वाद की भाषा में दिया गया है। उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं रहता है, क्योंकि- जिनमत में एकान्तता
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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