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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8-1-4 (213) 109 नहीं है। जिनमत में किसी एक पक्ष का समर्थन एवं दूसरे का सर्वथा विरोध नहीं मिलता है। जिनमत में प्रत्येक पदार्थ को समझने की एक अपेक्षा, एक दृष्टि रहती है। वैज्ञानिकों ने भी पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए सापेक्षवाद को स्वीकार किया है। आगमिक भाषा में इसे स्याद्वाद, अनेकान्तवाद या विभज्यवाद कहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- एकान्तवाद पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने में समर्थ नहीं है। अतः मुनि को एकान्तवादियों से संपर्क नहीं रखना चाहिए। किंतु यथार्थ धर्म में श्रद्धा-निष्ठा रखनी चाहिए। ___ कौन-सा धर्म यथार्थ है, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 213 // 1-8-1-4 ___ से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपण्णेण जाणया पासया अदुवा गुत्ती वओ गोयरस्स त्तिबेमि सव्वत्थ संमयं पावं, तमेव उवाइक्कम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामे वा अदुवा रण्णे, नेव गामे नेव रण्णे, धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा तिण्णि उदाहिया जेसु ईमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया, जे निव्वुया पावेहिं कम्मेहिं अनियाणाते वियाहिया // 213 / / // संस्कृत-छाया : तद् यथा- इदं भगवता प्रवेदितं आशुप्रज्ञेन जानता पश्यता, अथवा गुप्तिः वाग्गोचरस्य इति ब्रवीमि-सर्वत्र सम्मतं पापम्, तदेव उपातिक्रम्य, एषः मम विवेकः व्याख्यातः, ग्रामे वा अथवा अरण्ये, नैव ग्रामे नैव अरण्ये, धर्म आजानीत प्रवेदितं माहणेण = भगवता मतिमता - यामा: त्रय: उदाहृताः येषु इमे आर्याः सम्बुध्यमानाः समुत्थिता: ये निर्वृताः पापेषु कर्मसु अनिदानाः ते व्याख्याताः // 213 // III सूत्रार्थ : - यह स्याद्वाद रूप सिद्धांत सर्वदर्शी भगवान ने प्रतिपादन किया है, एकान्तवादियों का वैसा सिद्धान्त नहीं है। क्योंकि- भगवान भाषा समिति युक्त हैं अथवा भगवान ने वाणी के विषय में गुप्ति और भाषा समिति के उपयोग का उपदेश दिया है। तात्पर्य यह है कि- वादविवाद के समय वचन गुप्ति का पूरा ध्यान रखना चाहिए। तर्क-वितर्क एवं वादियों के प्रवाद को छोड़कर यह कहना उचित एवं श्रेष्ठ है कि- पाप कर्म का त्याग करना ही सर्ववादि सम्मत सिद्धान्त है। अतः मैंने उस पापकर्म का त्याग कर दिया है। चाहे मैं ग्राम में रहूं या जंगल
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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