________________ 1101 -8-1-4 (२१3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में रहूं, परन्तु पाप कर्म नहीं करना यह मेरा विवेक है। वस्तुतः धर्म न ग्राम में है और न जंगल में है, वह तो विवेक में है। अत: तुम परम मेधावी सर्वज्ञ कथित धर्म को जानो। भगवान ने तीन याम का वर्णन किया है। उन के द्वारा ये आर्य लोग सम्बोधि को प्राप्त होते हुए धर्म कार्य में उद्यत हो रहे हैं और वे कषायों का परित्याग करके शान्त होते हैं। मुमुक्षु पुरुष पापकर्मों से रहित होते हैं, अत: वे ही मोक्ष मार्ग के योग्य कहे गये हैं। IV टीका-अनुवाद : स्यावाद स्वरूप यह वस्तु-पदार्थ का लक्षण सभी व्यवहार में अनुवादी याने सिद्ध है, अतः कहिं भी खंडित नहि होता, यह बात सर्वज्ञ परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी ने कही है... यह प्रभु आशुप्रज्ञ याने सतत उपयोगवाले निरावरण केवलज्ञानवाले हैं... ज्ञानोपयोग से लोक को जानते हैं, और दर्शनोपयोग से लोक को देखते हैं... परमात्माने कहा है किएकांतवादीओं ने धर्म का स्वरूप ठीक से नहि जाना है... इत्यादि... अथवा परमात्माने कहा है कि- मुनी वाणी की गुप्ति करे या भाषा समिति में रहे... अथवा वस्तु-पदार्थ के अस्ति-नास्ति, ध्रुव-अध्रुव आदि विषय में एकांतवादवाले तीन सौ त्रेसठ (363) पाखंडीओं को प्रतिज्ञा-हेतु-दृष्टांत के द्वारा उनके मत का दूषण (दोष) प्रगट करके पराजित करें... अर्थात् इस प्रकार अन्यमतवालों को सम्यक् (अच्छा) उत्तर दें... अथवा वाणी संबंधित गुप्ति करें अर्थात् मौन रहें... अथवा वाद-विवाद के लिये आये हुए कुमतवाले वादीओं को इस प्रकार कहे कि- आप सभीने हि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति संबंधित आरंभ-समारंभ करना, करवाना एवं अनुमोदन के स्वरूप से स्वीकारा है, अर्थात् मान्य रखा है अथवा तो निषेध न करने के कारण से स्वीकृत है; ऐसा अर्थ निकलता है... अत: पापानुष्ठान आपको मान्य (संमत) है, जब कि- हमको यह पापानुष्ठान मान्य नहि है, क्योंकि- हम इस पापानुष्ठानो का त्याग करतें हैं... और यह हि हमारा विवेक है, तो अब मैं सभी प्रकार से प्रतिषिद्ध अर्थात् आश्रव वालों से संभाषण कैसे करूं ? यदि संभाषण हि नहि करना है; तो फिर वाद-विवाद की तो बात हि कहां ? अर्थात् हम विवाद नहि करतें... __ वादी प्रश्न करता है कि- अन्य मतवाले किस प्रकार से पापी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अनाचारी या अतपस्वी हैं ? क्योंकि- वे अकृष्ट भूमि- वनवासी हैं, मूल-कंदाहारी हैं और वृक्ष आदि में निवास करते हैं... ___ आचार्यजी उत्तर देते हैं कि- मात्र अरण्यवास आदि से धर्म संभवित नहि है, किंतु . जीव एवं अजीव आदि के परिज्ञान एवं ज्ञान पूर्वक के अनुष्ठान से हि धर्म संभवित है... और कुमतवादीओं को ऐसा ज्ञान एवं अनुष्ठान नहि है; इसलिये वे हमारे असमनोज्ञ है... तथा सद् एवं असद् के विवेकवालों को हि धर्म है, चाहे वे गांव में हो या अरण्य में हो, क्योंकि