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________________ E 104 // 1-8-1-3(212) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % तथा शाक्यादि मतवाले कहते हैं कि- लोक अध्रुव याने अनित्य है, क्योंकि- लोक प्रतिक्षण विनाशशील है... तथा विनाश के हेतु के अभाव वाले नित्य पदार्थ में क्रम से या एक साथ अर्थ क्रिया में प्रयुक्त होने का सामर्थ्य हि नहि है... अथवा अध्रुव याने चल (चंचल)... जैसे कि- कितनेक लोगों के मत से भूगोल नित्य होते हुए भी चल है... तथा सूर्य तो व्यवस्थित हि है, तो भी जो लोग सूयमंडल को दूर से पूर्व की और देखतें हैं; उनकी दृष्टि से सूर्योदय है, तथा जो लोग सूर्यमंडल को नीचे की और हैं, उनकी दृष्टि से मध्याह्न (दुपहर) है, और जो लोग सूर्यमंडल से बहोत हि दूर होने से सूर्य को देख नहि पातें उनकी दृष्टि से सूर्यास्त है... तथा अन्य कितनेक लोग लोक को सादि याने उत्पन्न मानतें हैं... वह इस प्रकार... यह जगत् अंधकारमय है, अज्ञात है, लक्षण रहित है, चिंतन योग्य नहि है, जानने योग्य नहि. है, किंतु चारों और से सोये हुए की तरह सुप्त हि है... ऐसे इस एकार्णव याने चारों और जल. हि जल स्वरूप; इस जगत में स्थावर एवं जंगम का विनाश हुआ था, देव एवं मानव विनष्ट हुए थे, उरग एवं राक्षस भी विनष्ट हुए थे, महाभूतों से रहित मात्र गड्ढे की तरह रहा हुआ था, ऐसे इस जगत में अचिंत्यात्मा प्रभु सोये हुए तपश्चर्या करते थे; तब सोये हुए उन प्रभु के नाभि में से एक कमल प्रगट हुआ, कि-जो तेजस्वी सूर्य मंडल की तरह रमणीय सुवर्ण कर्णिकावाला वह कमल था... उस कमल में यज्ञोपवीतवाले भगवान दंडी ब्रह्माजी प्रगट हुए, उन्होंने जगत की जनेता माताओं का सर्जन कीया... देवों की माता अदिति, असुरों की माता दिति, मनुष्यों की माता मनु, पक्षीओं की माता विनता, सरीसृप याने सों की माता कद्रु, नाग की माता सुलसा, गाय, भेंस आदि चतुष्पदों की माता सुरभि, एवं शेष सभी बीजों की माता पृथ्वी... इत्यादि... तथा कितनेक लोग इस लोक को अनादि मानतें हैं, जैसे कि- शाक्य मतवाले ऐसा कहते हैं कि- हे साधुजन ! यह संसार अनादि कालीन है, क्योंकि- इस संसार की आदि कोटी याने प्रारंभ नहि जाना जा शकता है... तथा जो प्राणी निरावरण है, उनको अविद्या नहि होती, और प्राणी की उत्पत्ति भी नहि है... तथा जगत के प्रलय में सभी का विनाश होने के कारण से यह लोग सपर्यवसित याने अंतवाला है... तथा आत्यंतिक याने सर्व प्रकार से विनाश न होने के कारण से यह लोक अपर्यवसित है... अर्थात् अनंत है... क्योंकि- शास्त्र का ऐसा वचन है कि- “यह जगत् अनीदृश कभी भी नहि है" यहां पर जिन्हों के मत से यह संसार सादि है, उनके हि मत में अंतवाला भी माना गया है, तथा जिन्हों के मत में यह संसार अनादि माना गया है, उनके मत से अनंत है तथा कितनेक लोगों के मत से यह संसार दोनों प्रकार से माना गया है... अन्यत्र भी कहा गया है कि- इस लोक में क्षर एवं अक्षर दो पुरुष है, उनमें सभी
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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