________________ - - श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8 - 1 - 3 (212) 103 है। अतः तुम्हें यह समझना चाहिए कि- वह आदरणीय भी नहीं है। IV टीका-अनुवाद : इस मनुष्य लोक में अशुभ कर्मो के विपाकोदयवाले कितनेक लोग मोक्ष के अनुष्ठान (आचार) को अच्छी तरह से जानतें नहिं हैं, और भिक्षाचर्या अस्नान, पसीना, मेल आदि परीषहों से पराभव पाकर सखशील ऐसे शाक्यादि साध आरंभ समारंभ की कामना करते हैं... जैसे कि- मठ, बगीचा, तालाब, कूवे आदि करवाना, तथा औद्देशिकादि दोषवाले भोजनादि के द्वारा धर्म होता है; ऐसा कहतें हैं... तथा प्राणीओं का वध करो ऐसा आदेश देते हैं, तथा अन्य लोगों के द्वारा प्राणीओं का वध करवातें, एवं प्राणीओं का वध करनेवालों को अच्छा मानतें हैं... अथवा अशुभ अध्यवसायवाले एवं पाप का डर न रखते हुए वे दुसरों के अदत्त धन को ग्रहण करते हैं.... प्रथम एवं तृतीय व्रत में थोडा वक्तव्य होने से पहले कहकर अब बहोत वक्तव्य वाला दुसरा व्रत कहते हैं... अथवा पहले अदत्त धन को ग्रहण करते हैं और बाद में विविध प्रकार के झूठे वचन बोलतें हैं... जैसे कि- स्थावर एवं जंगम स्वरूप लोक है, और नव खंडवाली पृथ्वी है, अथवा सात द्वीप प्रमाण पृथ्वी है... तथा अन्य मतवाले कहते हैं किब्रह्मांड स्वरूप जगत है... तथा दूसरे लोग कहते है कि-ऐसे अनेक ब्रह्मांड जल में तैरते हुए रहे हुए हैं... तथा अपने कीये हुए कर्म फल को भुगतनेवाले जीव हैं, परलोक है, तथा बंध एवं मोक्ष है... तथा पांच महाभूत हैं... इत्यादि... तथा चार्वाक मतवाले कहते हैं कि- लोक हि नहि है, जो कुछ दीख रहा है, वह माया-इंद्रजाल या स्वप्न हि है... तथा उन्होंने रमणीयता का विचार कीये बिना हि भूतों का स्वीकार कीया है, तथा उनके मत अनुसार परलोक में जानेवाला जीव हि नहि है... और शुभ याने पुन्य और अशुभ याने पाप नहि है... किंतु किण्व याने मदिरा के बीज आदि से उत्पन्न होनेवाली मद-शक्ति से हि चैतन्य उत्पन्न होता है... इस प्रकार जो कुछ दिखाइ देता है; वह सभी माया-गंधर्व नगर के समान हि है... क्योंकि- वे उपपत्ति-क्षम नहि है... कहा भी है कि-जैसे जैसे पदार्थों का विचार करते हैं; वैसे वैसे हि उनका विभाग कीया जाता है... तथा शरीर, विषय एवं इंद्रियां पृथ्वी आदि पांच भूत से बने हुए हैं, तो भी मंद (अज्ञानी) लोग दुसरों को तत्त्व का उपदेश देते हैं... इत्यादि... तथा सांख्यमतवाले कहते हैं कि- यह लोक ध्रुव याने नित्य है, क्योंकि- उत्पाद से आविर्भाव (प्राकट्य) तथा विनाश से तिरोभाव (अदृश्य) होवे, किंतु असत् की कभी उत्पत्ति नहि होती और सत् का कभी भी विनाश नहि होता... अथवा ध्रुव याने निश्चल... नदीयां, समुद्र, पृथ्वी, पर्वत एवं आकाश तो सदा निश्चल हि है...