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________________ 102 // 1-8-1- 3 (212) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D विउजंति, तं जहा-अस्थि लोए अपजवसिए लोए सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा इत्थ वि जाणह अकस्मात् एवं तेसिं नो सुयक्खाए धम्मे नो सुपण्णत्ते धम्मे भवइ // 212 // // संस्कृत-छाया : . इह एकेषां आचारगोचरः न सुनिशान्तः भवति, ते इह आरम्भार्थिनः अनुवदन्तः, जहि प्राणिनः, घातयन्तः घ्नन्तः च अपि समनुजानन्तः, अथवा अदत्तं आददति, अथवा वाचः (विकुर्वन्ति) वियुजन्ति, तद्-यथा-अस्ति लोकः, अपर्यवसितः लोकः सुकृतमिति वा दुष्कृतमिति वा कल्याण: इति वा, पापः इति वा साधुः इति वा असाधुः इति वा, सिद्धिः इति वा असिद्धिः इति वा नरक इति वा अनरक इति वा यदिदं . विप्रतिपन्ना: मामकं धर्म प्रज्ञापयन्तः, अत्र अपि जानीत अकस्मात् एवं तेषां न स्वाख्यातः धर्मः, न सुप्रज्ञप्तः धर्मः भवति // 212 // III सूत्रार्थ : इस संसार में कुछ व्यक्तियों को आचार विषयक सम्यग् बोध नहीं होता। अत: कुछ अज्ञात भिक्षु इस लोक में आरम्भार्थ प्रवृत्त हो जाते है। वे अन्य धर्मावलम्बियों के कथनानुसार स्वयं भी जीवों के वध की आज्ञा देते हैं, दूसरों से वध करवाते हैं और वध करने वालों का अनुमोदन भी करते हैं। वे अदत्तादान का ग्रहण करते हैं और अनेक तरह के वचनों के द्वारा एकांत पक्ष की स्थापना करते हैं। जैसे कि- कुछ व्यक्ति कहते है कि- लोक है, तो कुछ कहते हैं कि- लोक नहीं है। कोई कहता है कि- यह लोक ध्रुव-शाश्वत है, तो कोई कहता है कि- यह लोक अधव-अशाश्वत है। कोई कहता है कि- लोक आदि है, तो कोई कहता है कि- लोक अनादि है। कोई कहता है कि- लोक सान्त है, तो कोई कहता है किलोक अनन्त है। कोई कहता है कि- इसने दीक्षा ली यह अच्छा काम किया, तो कोई कहता है कि- इसने यह अच्छा नहीं किया है। कोई कहता है, धर्म कल्याण रूप है तो कोई कहता है कि- धर्म पाप रूप है। कोई कहता है कि- यह साधु है, तो कोई कहता है कि- यह असाधु है। कोई कहता है कि- सिद्धि है, तो कोई कहता है कि- सिद्धि का अस्तित्व ही नहीं हैं। कोई कहता है कि- नरक है, तो कोई कहता है- नरक का सर्वथा अभाव है। इस प्रकार यह विभिन्न विचारक लोक एकान्ततः अपने 2 मत की स्थापना करते हैं। वे अन्य धर्मावलम्बी लोक विविध प्रकार के विरुद्ध वचनों से धर्म की प्ररूपणा करते हैं। अत: भगवान / कहते हैं कि- हे शिष्यो ! इन विभिन्न धर्मावलम्बियों के द्वारा कथित धर्म का स्वरूप अहेतुक होने से प्रामाणिक नहीं है और उनमें एकांत पक्ष का अवलम्बन होने से वह यथार्थ भी नहीं
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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