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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1- 3 (212) 101 ___ * वह शाक्यादि विभिन्न धर्म को आचरनेवाले होते हैं, कभी अपने निवास स्थान में आते हुए होते हैं, या कभी जाते हुए बात करें, अथवा आहारादि दे, या आहारादि दान के लिये निमंत्रण करे या सार-संभाल वैयावच्च (सेवा) करे, तब उस कुशील का कुछ भी आहारादि ग्रहण न करें, या उनके साथ परिचय भी न करें, किंतु उनके प्रति अतिशय अनादरभाववाले हि रहें... ऐसा करने से हि दर्शन-शुद्धि होती है, ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं... v सूत्रसार : .. पूर्व सूत्र में अपने से असंबद्ध अन्य मत के भिक्षुओं को आहार-पानी आदि देने का निषेध किया था। प्रस्तुत सूत्र में इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि- यदि कोई बौद्ध या अन्य किसी मत का साधु आकर कहे कि- हे मुनि ! तुम हमारे विहार में चलो ! वहां तुम्हें भोजन आदि की सब सुविधा मिलेगी। यदि तुम्हें हमारे यहां का भोजन नहीं करना हो तो तुम भोजन करके आ जाना। भले ही तुम भोजन करके आओ या भूखे ही आओ, जैसे तुम्हारी इच्छा हो, परन्तु हमारे यहां आना अवश्य / इस तरह के वचनों को मुनि आदर पूर्वक श्रवण न करे। इसका तात्पर्य यह है कि- वे विभिन्न प्रलोभनों के द्वारा परिचय बढ़ाकर उसे अपने मत में मिलाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए उनके संपर्क से मुनि के आचार एवं विचार में शिथिलता आ सकती है, वह साधना पथ से विचलित हो सकता है। अतः साधु को उनसे घनिष्ट परिचय नहीं करना चाहिए और न उनके संपर्क में अधिक आना चाहिए। श्रुत एवं आचार सम्पन्न विशिष्ट गीतार्थ साधक हि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ विचार-चर्चा कर सकता है। क्योंकि- गीतार्थ साधु में अपनी साधना में दृढ़ रहते हुए अन्य व्यक्ति को सत्य मार्ग बताने की योग्यता है। वह उन्हें भी सही मार्ग पर ला सकता है। अतः विशिष्ट साधक के लिए प्रतिबन्ध नहीं है। परन्तु, सामान्य साधक में अभी इतनी योग्यता नहीं है कि- वह उन्हें सही मार्ग पर ला सके। अत: उनके लिए यह आवश्यक है कि- वह अपने से संबद्ध मुनियों के अतिरिक्त अन्य के साथ संपर्क न बढ़ावे, न उनका आदर-सन्मान करे एवं उनके स्थान पर भी न आए-जाए। तथा उनकी सेवा न करे और उनसे सेवा-शुश्रूषा न करावे। अन्य मत के विचारकों की विचारधारा कैसी है, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 212 // 1-8-1-3 इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिण्णमाययंति, अदुवा वायाउ
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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