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________________ 100 1-8-1-2 (211) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 2 // // 211 // 1-8-1-2 धुवं चेयं जाणिजा असणं वा जाव पायपुंछणं वा, लभिया नो लभिया, भुंजिया नो भुजिया, पंथं विउत्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्मं जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइजा वा निमंतिजा वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे तिबेमि // 211 // II संस्कृत-छाया : ध्रुवं चैतत् जानीयात् अशनं वा यावत् पादपुञ्छनं वा लब्ध्वा वा अलब्ध्वा वा, भुक्त्वा वा अभुक्त्वा वा पन्थानं व्यावृत्त्य अपक्रम्य वा विभक्तं धर्मं जुषन् समागच्छन् प्रदद्यात् वा निमन्त्रयेद् वा कुर्यात् वैयावृत्त्यं परं अनाद्रियमाणः इति ब्रवीमि // 211 // III सूत्रार्थ : __ यदि किसी जैन भिक्षु को कोई बौद्धादि भिक्षु ऐसा कहे कि- तुम्हें निश्चित रूप से हमारे मठ में सब प्रकार के अन्नादि पदार्थ मिल सकते हैं। अतः हे भिक्षु ! तू अन्न पानी आदि को प्राप्त करके या विना प्राप्त किए, आहारादि खाकर या विना खाए ही तुमको हमारे मठ में अवश्य आना चाहिए। भले ही तुम्हें वक्रमार्ग से ही क्यों न आना पड़े, किंतु आना अवश्य। यदि विभिन्न धर्म वाला साधु, उपाश्रय में आकर या मार्ग में चलते हुए को इस प्रकार कहता हो या आदरपूर्वक अन्नादि का निमन्त्रण देता हो या सम्मान पूर्वक अन्नादि पदार्थ देना चाहता हो और वैयावृत्य-सेवा-शुश्रूषा आदि करने की अभिलाषा रखता हो, तो ऐसी स्थिति में संयमशील मुनि को उसके वचनों का विशेष आदर नहीं करना चाहिए अर्थात् उसके उक्त-प्रस्ताव को किसी भी तरह स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : कुशीलवाले वे शाक्यादि अशनादि को देखकर ऐसा कहे कि- देखिये ! हमारे निवास में हमेशा अशनादि होते हैं; अत: आपको यह अशनादि अन्य जगह प्राप्त हो, या प्राप्त न हो, तथा आहारादि वापरकर या बिना वापरे हमारे निवास में अवशय आइयेगा... अर्थात् आहारादि प्राप्त न हो तो, आहारादि की प्राप्ति के लिये, तथा आहारादि प्राप्त हो तो विशेष आहारादि के लिये, तथा भोजन करने पर बार बार भोजन करने के लिये और आहारादि न वापरा (खाया) हो तो प्रथमालिका याने प्रात:काल के अल्पाहार के लिये, जैसा भी हो; आप हमारे निवास स्थान में आइयेगा... आपको जैसा भी कल्पनीय होगा; वैसा हम देंगे... क्योंकिहमारा निवास-स्थान आपके लिये अनुपम है... अथवा तो हमारे लिये कीये हुए मार्ग को छोडकर वक्रमार्ग से भी आइयेगा... अथवा आकर के अन्य घरों में जाइयेगा... यहां आने में आप खेद न करें... इत्यादि...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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