________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8-1-1 (210) // 99 आने से साधु का मन विचलित होगा और परिणाम स्वरूप अपने आचार एवं विचार में भी शिथिलता आने लगेगी। अतः साधक को शिथिलाचार वाले स्वलिंगी एवं दर्शन तथा आचार से रहित अन्य लिंगी साधुओं से विशेष सम्पर्क नहीं रखना चाहिए। उन्हें आदर पूर्वक आहार आदि भी नहीं देना चाहिए। इसमें एक दृष्टि यह भी है कि- जैसे शिथिलाचारी साधु दर्शन एवं वेश से मनोज्ञ और चारित्र से अमनोज्ञ है, उसी प्रकार श्रावक एवं सम्यग् दृष्टि दर्शन से समनोज्ञ और चारित्र एवं वेश से अमनोज्ञ होते हैं और शाक्य, शैव आदि अन्य साधु, संन्यासी दर्शन, चारित्र एवं वेश से अमनोज्ञ हैं। अतः साधु किसके साथ आहारादि का सम्बन्ध रखे और किससे न रखे, यह बड़ी कठिनता है। सम्यग् दृष्टि से लेकर शिथिलाचारी तक मनोज्ञता एवं अमनोज्ञता दोनों ही हैं। यदि शिथिलाचारी के साथ आहार आदि का संबन्ध रखा जा सकता है, तो दर्शन से समनोज्ञ श्रावक के साथ संबन्ध क्यों न रखा जाए ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। परन्तु, सबके साथ संबंध रखने पर वह अपनी साधना का भली-भांति परिपालन नहीं कर सकेगा। अतः साधु के लिए यही उचित है कि- ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से मनोज्ञ-संपन्न साधु के साथ ही अपना सम्बन्ध रखे, अन्य के साथ नहीं। जब उसका सम्बन्ध रत्नत्रय से सम्पन्न साधुओं के साथ ही है, तो वह प्रत्येक आवश्यक वस्तु अपने एवं अपने से सम्बद्ध साधकों के लिए ही लाएगा और देने वाले दाता भी उनके उपयोग के लिए ही देगा। अत: उसे अपने एवं अपने साथियों के लिए लाए हुए आहार-पानी आदि पदार्थों को अपने से असम्बद्ध व्यक्तियों को देने का कोई प्रसंग नहीं रहता है। प्रथम तो आहारादि पदार्थ अन्य असम्बद्ध साधु को देने के लिए गृहस्थ की आज्ञा न होने से तीसरे महाव्रत में दोष लगता है और दूसरा दोष यह आएगा कि-उनसे अधिक संपर्क एवं परिचय होने से अपने विशुद्ध दर्शन एवं चारित्र में शिथिलता आ सकती है। इसलिए साधक को अपने से असम्बद्ध स्वलिंगी एवं परलिंगी किसी भी साधु को विशेष आदर-सत्कार पूर्वक आहार-पानी आदि नहीं देना चाहिए। यह उत्सर्ग सूत्र है, अपवाद में कभी विशेष परिस्थिति में आहारादि दिया भी जा सकता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में आहारादि देने का सर्वथा निषेध न करके आदर-सन्मान पूर्वक देने का निषेध किया गया है। ___ इससे स्पष्ट हो गया कि- इस निषेध के पीछे कोई दुर्भावना, संकीर्णता एवं तिरस्कार की भावना नहीं है। केवल संयम की सुरक्षा एवं आचार शुद्धि के लिए साधक को यह आदेश दिया गया है कि- वह रत्नत्रय से सम्पन्न मुनि के साथ ही आहार-पानी आदि का सम्बन्ध स्खे और उसकी ही सेवा-शुश्रुषा करे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहते हैं...