________________ 98 1 -8-1-1(210) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - = - IV टीका-अनुवाद : हे जंबू ! मैं सुधर्मस्वामी तुम्हें जो कुछ कह रहा हूं, वह मैंने भगवान् श्री महावीर प्रभुजी के मुख से सुना है, जैसे कि- दृष्टि या लिंग से समनोज्ञ (साधु) हो या असमनोज्ञ शाक्यादि साधु हो, उनको अशन याने ओदनादि आहार, पान याने द्राक्षजल आदि खादिम याने नालिकेरादि एवं स्वादिम याने लवंगादि तथा वस्त्र, पात्र, कंबल या रजोहरण आदि प्रासुक या अप्रासुक, कुशीलवाले ऐसे अन्य साधुओं को कुछ भी न दें... देने के लिये निमंत्रित भी न करें और उनकी वैयावच्च-सार-संभाल-सेवा भी न करें... अर्थात् उनके प्रति आदरवाले न बनें... v सूत्रसार : छठे अध्ययन में परीषहों पर विजय पाने का उपदेश दिया गया है। क्योंकि- परीषहों का विजेता ही संयम का भली-भांति परिपालन कर सकता है, वह विवेकी साधु आचार को शुद्ध रख सकता है। इसलिए प्रस्तुत आठवे अध्ययन में आचार एवं त्यागनिष्ठ जीवन का उल्लेख करते हैं... प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- साधु को किसके साथ सम्बन्ध रखना चाहिए। सम्बन्ध हमेशा अपने समान आचार-विचार वाले व्यक्ति के साथ रखा जाता है। इसी बात को यहां समनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है। दर्शन एवं चरित्र से संपन्न साधु समनोज्ञ कहलाता है और इन से रहित अमनोज्ञ / अतः साधु को दर्शन एवं चरित्र संपन्न मुनियों के साथ आहार आदि का सम्बन्ध रखना चाहिए, अन्य के साथ नहीं। इसके अतिरिक्त जो साधु दर्शन से सम्पन्न है और जैन मुनि के वेश में है, परन्तु, चारित्र सम्पन्न नहीं हैशिथिलाचारी है, या केवल वेश सम्पन्न है, परन्तु दर्शन एवं चारित्र निष्ठ नहीं है और जो साधु दर्शन, चारित्र एवं वेश से सम्पन्न नहीं है अर्थात् जैनेतर शाक्यादि सम्प्रदाय का भिक्षु है, तो उन्हें विशेष आदर सत्कार के साथ आहार पानी, वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ नहीं देना चाहिए और उनकी वैयावृत्य-सेवा भी नहि करनी चाहिए। साधक का जीवन रत्नत्रय की विशुद्ध आराधना करने के लिए है। अतः साधु को ऐसे साधकों के साथ ही सम्बन्ध रखना चाहिए जो अपने स्तर के हैं। क्योकि- उत्तम साधुओं के संपर्क एवं सहयोग से साधु को अपनी साधना को आगे बढ़ाने में बल मिलेगा। परन्तु विपरीत दृष्टि रखने वाले एवं चारित्र से हीन व्यक्ति की संगत करने से अपने जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। पहले तो अपना अमूल्य समय कि- जो स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन में लगना चाहिए वह समय इधर-उधर की बातों में नष्ट होगा। तथा ज्ञान साधना में विघ्न पड़ेगा और बार-बार आचार एवं विचार के सम्बन्ध में विभिन्न तरह की विचारधाराएं सामने