________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-2-16 (303) // 285 %3 III सूत्रार्थ : परम मेधावी भगवान महावीर ने निदान रहित होकर अनेकवार इस वसति-शय्या विधि का परिपालन किया अतः अपनी आत्मा का विकास करने के लिए अन्य साधु भी इस शय्याविधि का यथाविधि आचरण करते हैं। ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : इस तीसरे उद्देशक का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहतें हैं कि- मतिमान् श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी इस वसति-शय्या विधि का यथाविधि पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते थे... अत: अन्य मुमुक्षु साधुओं को भी इस शय्या-विधि का अनुष्ठान यथाविधि करना चाहिये... क्योंकि- यह शय्या-विधि हि कर्मो की निर्जरा के लिये असाधारण कारण माना गया है... . ___ इति शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है, एवं ब्रवीमि का अर्थ है, हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हे कहता हूं... इत्यादि पूर्ववत्... V सूत्रसार : . प्रस्तुत उद्देशक में बताई गई वसति-शय्या-विधि का भगवान महावीर ने स्वयं पालन किया था। प्रथम उद्देशक के अन्त में भी उक्त गाथा दी गई है। अत: इसकी व्याख्या वहां की गई है। पाठक वहीं से देख लें। . 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // % % % : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र