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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 21 (285) 261 - परन्तु, यह “अप्रतिज्ञ" शब्द सापेक्ष है। क्योंकि- परमात्मा ने सरस आहार की प्रतिज्ञा नहीं की, किन्तु, नीरस आहार की प्रतिज्ञा अवश्य की थी। जैसे उड़द के बाकले लेने की प्रतिज्ञा की थी। इससे उन्होंने साधना काल में आहार के सम्बन्ध में कोई प्रतिज्ञा नहीं की ऐसी बात नहीं है फिर भी सूत्रकार ने जो ‘अप्रतिज्ञ' शब्द का प्रयोग किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि- सरस आहार की प्रतिज्ञा न करने या इच्छा न रखने से उन्हें अप्रतिज्ञ ही कहा है। क्योंकि- शरीर का निर्वाह करने के लिए आहार लेना आवश्यक है। यदि सरस एवं प्रकाम भोजन ग्रहण करते हैं तो उसमें आसक्ति पैदा हो सकती है और अधिक परिमाण में खाने से शरीरमें विकृतियां भी हो सकती है। परन्तु, नीरस एवं रूक्ष आहार में न आसक्ति होती है और न विकारों को उत्पन्न होने का अवसर मिलता है और नीरस आहार हि स्वाद एवं विकारों पर विजय प्राप्त करने का साधन है। लगभग 6 महिने के लम्बे तप के बाद रूक्ष उड़द के बाकले खाना साधारण बात नहीं है। इसके लिए मन में विवेक करना होता है। उस समय हमारा मन दूध आदि स्निग्ध एवं सुपाच्य आहार की इच्छा रखता है। उस समय रुक्ष उडद के उबले हुए दाने और वह भी नमक-मिर्च से रहित स्वीकार करके समभाव पूर्वक खा लेना जबरदस्त साधक का ही काम है। इस तरह भगवान ने स्वाद एवं अपने योगों पर विजय प्राप्त कर ली थी। इसी कारण उनकी नीरस आहार की प्रतिज्ञा को अभिगृह माना है। क्योंकि- वह आहार स्वाद एवं शक्ति बढ़ाने के लिए नहीं, अपितु साधना में तेजस्विता लाने के लिए करते थे। इस अपेक्षा से 'अप्रतिज्ञ' शब्द का प्रयोग हुआ होता है। भगवान महावीर का लक्ष्य शरीर पर नहीं किंतु आत्मा पर था। वे सदा आत्मा का ही ध्यान रखते थे। यदि कभी आंख में तृण या रेत के कण आदि गिर जाते तो उन्हें निकालने का प्रयत्न नहीं करते थे और शरीर में कभी खुजली आती थी तो भी वे नहि खुजालते थे। वे शरीर की चिन्ता नहीं करते थे। शरीर की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था। वे सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। उनके विचरण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 21 // // 285 // 1-9-1-21 . .. अप्पं तिरियं पेहाए अप्पिं पिट्ठओ पेहाए। अप्पं बुइएऽपडिभाणी, पंथपेहि चरे जयमाणे // 285 // संस्कृत-छाया : अल्पं तिरश्चीनं प्रेक्षते, अल्पं पृष्ठतः प्रेक्षते। अल्पं ब्रूते अप्रतिभाषी, पथप्रेक्षी
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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