________________ 262 // 1-9-1-22 (२८६)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चरेद् यतमानः // 285 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर चलते हुए न तिर्यग् दिशा को देखते थे, न खड़े होकर पीछे की तरफ देखते थे और न मार्ग में किसी के पुकारने पर बोलते थे। किन्तु मौन वृत्ति से यतना पूर्वक मार्ग को देखते हुए चलते थे। IV टीका-अनुवाद : यहां अल्प शब्द अभाव अर्थ में है... परमात्मा जयणा (यतना) से विहार करते हुए जीवों के रक्षण में प्रयत्न करते थे मार्ग में चलते हुए तिरच्छा नहि देखतें, तथा चलते चलते रूक कर पीछे की और नहि देखतें... और मार्ग में कोई भी पुछे (प्रश्न करे) तब भी परमात्मा कुछ भी नहि बोलतें... अर्थात् मौनभाव से हि अपने मार्ग में विचरतें हैं... V सूत्रसार : साधना का मूल उद्देश्य है- विषयों में परिभ्रमण करने वाले योगों को आत्म-चिन्तन में केन्द्रित करना। इसके लिए समिति और गुप्ति की साधना बताई है। समिति का परिपालन करते समय साधक अपने आवश्यक कार्य में प्रवृत्त होता है। इसलिए वह जिस संयमानुष्ठान में प्रवृत्त होता है, उसी में अपने योगों को केन्द्रित कर लेता है। योगों को आत्म-चिन्तन में केन्द्रित करने का यह सबसे अच्छा उपाय है कि- साधक अपने मन-वचन काया के योगों को समिति-पूर्वक किए जाने वाले अपने आवश्यक कार्य में केंद्रित करे। भगवान महावीर ने ऐसा ही किया था। जब वे चलते थे तो अपनी चित्तवृत्ति एवं योगों को ईर्यापथ में केन्द्रित कर लेते थे। उस समय उनका इधर-उधर या पीछे की और ध्यान नहीं जाता था। वे न कभी दाएं-बाएं देखते थे और न खडे होकर पीछे देखते थे तथा मर्यादित भूमि से आगे या ऊपर आकाश में भी नहि देखते थे। वे किसी से संभाषण नहि करते थे। एवं किसी के पूछने पर भी कोई उत्तर नहीं देते हुए ईर्यासमिति से अपने मार्ग पर बढ़ते रहते थे। उनके विचरण के सम्बन्ध में कुछ और विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 22 // // 286 // 1-9-1-22 सिसिसि अद्धपडिवन्ने तं वोसिज्ज वत्थमणगारे। पसारित्तु बाहुं परक्कमे नो अवलम्बियाण कंधंमि // 286 //