________________ 260 // 1- 9 - 1 - 20(284) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : मात्रज्ञः अशनपानस्य, नानुगृद्धः रसेषु अप्रतिज्ञः / अक्ष्यपि नो प्रमार्जयेत्, नापि च कण्डूयते मुनि: गात्रम् // 284 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर अन्न पानी के परिमाण को जानने वाले थे, रसों में अमूर्च्छित थे, सरस आहार के लेने की प्रतिज्ञा से रहित थे, आंख में रज कण पडने पर भी उसे नहीं निकलते थे। तथा खुजली आने पर भी शरीर को नहीं खुजालते थे। IV टीका-अनुवाद : आहार के परिमाण (मात्रा) को जाननेवाले परमात्मा शाली ओदन आदि अशन तथा द्राक्षपान आदि जल की मात्रा के ज्ञाता थे... एवं घी, दुध, आदि विगइओं में आसक्त नहि थे... अर्थात् गृहस्थावस्था में भी परमात्मा आहारादि पदार्थों में अनासक्त हि थे, जब किअभी तो परमात्मा ने प्रव्रज्या ग्रहण की है, अत: अभी परमात्मा उन आहारादि में विशेष प्रकार से अनासक्त है... तथा “आज मैं सिंहकेशर मोदक हि ग्रहण करुंगा" ऐसी प्रतिज्ञा परमात्मा नहि करतें... परंतु “आज यदि कुल्मास (अडद के बाकुले) का आहार प्राप्त होगा, तो हि मैं आहार करुंगा" ऐसी प्रतिज्ञा अवश्य करतें थे... तथा कभी आंखों में रजःकण (कचरा) पडे तो परमात्मा उस रजःकण को आंखों में से दूर करने का उद्यम नहि करते... तथा जब कभी शरीर में कहिं भी खुजली (खजाल) की पीडा हो, तब परमात्मा काष्ठादि (सली) से खुजालते नहि थे... . v सूत्रसार : भगवान महावीर का जीवन उत्कृष्ट साधना का जीवन था। वे केवल संयम साधना के उद्देश से ही आहार ग्रहण करते थे, स्वाद एवं शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए नहीं। इसलिए उन्होंने कभी भी सरस एवं प्रकाम आहार की गवेषणा नहीं की। वे नीरस आहार ही स्वीकार करते थे और वह भी निरन्तर प्रतिदिन नहीं लेते थे। कभी चार चार महीने का, कभी 6 महीने का, कभी एक महीने का, कभी 15 दिन का तप तो कभी और कुछ तप कर देते थे। इस तरह उनका जीवन तपमय था। कहने का तात्पर्य यह है कि- भगवान ने कभी सरस एवं स्वादिष्ट आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा नहीं की थी। इस लिए उन्हें अप्रतिज्ञ कहा है।