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________________ 72 1 -6-4-6 (206) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बाद विविध प्रकार के कर्मो के वश होकर भग्न हुआ है... देखिये ! कर्मो का सामर्थ्य कैसा है ? इत्यादि... तथा कितनेक साधु अच्छे संयमाचरणवाले संयमी साधुओं के साथ रहते हुए भी शिथिलविहारी प्रमादाचरणवाले होतें हैं... तथा संयमानुष्ठान से मोक्षमार्ग में चलनेवाले साधुओं के साथ रहने पर भी निर्लज्जता के कारण से पापाचरणवाले होते हैं... तथा विरतिवालों के साथ रहने पर भी अविरत होते हैं... तथा द्रव्यभूत याने योग्य-अच्छे साधुओं के साथ रहने पर भी पाप के कलंक से कलंकित होते हैं... इत्यादि... अत: श्री सुधर्मास्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य श्री जंबूस्वामीजी से कहते हैं कि- कर्मो की ऐसी विषम स्थिति को जानकर आप ! ज्ञाततत्त्व पंडित बनेंगे... मर्यादा में रहे हुए मेधावी बनेंगे... और विषयभोग की पिपासा का त्याग करके निष्ठितार्थ याने सच्चे संयमी साध बनेंगे... और वीर याने कर्मो को विनाश करने में समर्थ होकर आगम याने सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर स्वामजी के उपदेश अनुसार सदाहमेशा मोक्षमार्ग में पराक्रम कीजीयेगा... “इति..." अधिकार समाप्ति का सूचक है... और “ब्रवीमि'' पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधना की पूर्व एवं उत्तर स्थिति का एक चित्र उपस्थित किया है। इसमें बताया गया है कि- कुछ साधक त्याग-विराग पूर्वक घर का एवं विषयभोगों का त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं। परिजन उन्हें घर में रोकने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, वे उनके प्रलोभनों में नहीं आते और पारिवारिक बन्धन को तोड़कर संयम स्वीकार कर लेते हैं और निष्ठापूर्वक संयम का पालन करते हैं। वे संयम में किसी प्रकार का भी दोष नहीं लगाते हैं। ___ परन्तु, मोह कर्म के उदय से वे जब विषय-भोगों में आसक्त होकर संयम का त्याग कर देते हैं। वर्षों की घोर तपश्चर्या को क्षणभर में धूल में मिला देते हैं। सिंह की तरह गर्जने वाले वे गीदड़ की तरह कायर बन जाते हैं। भोगों में अति आसक्त रहने के कारण वे जल्दी ही मर जाते हैं। उन में से कुछ व्यक्ति दीर्घ आयुष्यबल से जीवित भी रहते हैं, परन्तु पथ भ्रमित हो जाने के कारण लोगों में उनका मान-सन्मान नहीं रहता है। जहां जाते हैं; वहां निन्दा एवं तिरस्कार ही पाते हैं। इस तरह वे वर्तमान एवं भविष्य के या इस लोक एवं परलोक दोनों लोक के जीवन को बिगाड़ देते हैं। अतः उनके दुष्परिणाम को देखकर साधक को सदा विषय-वासना से दूर रहना चाहिए। ज्ञान एवं आचार की साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। जो साधक सदा-सर्वदा विवेक पूर्वक संयम का परिपालन करता है और आचार एवं विचार को शुद्ध रखता है, वह अपनी आत्मा का विकास करता हुआ एक दिन निष्कर्म बन जाता है। त्तिबेमि की व्याख्या पूर्ववत् समझें।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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