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________________ 278 // 1-9-2-10(297) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा तब तुम्हारी क्या स्थिति होगी, तुम्हारी उस अनागत काल की स्थिति को देखकर आंखो से अश्रु बह रहे है। यह है भगवान महावीर की करुणा... उनकी कष्ट सहिष्णुता के विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 10 // // 297 // 1-9-2-10 अहियासए सया समिए फासाई विरूवरूवाई। अरई रई अभिभूय रीयइ माहणो अबहुवाइ // 297 // II संस्कृत-छाया : ___ अध्यासयति सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान्। अरतिं रतिं अभिभूयते माहनः अबहुवादी // 297 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर विविध परीषहों को सहन करते थे। वे सदा पांचों समिति से युक्त रहते थे। उन्होंने रति-अरति पर विजय प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार संयमानुष्ठान में स्थित भगवान महावीर बहुत कम बोलते थे। IV टीका-अनुवाद : ईर्यासमिति आदि पांच समितिओं में सावधान तथा संयम के कष्टों से होनेवाली अरति एवं उपभोगादि के भौतिक पदार्थों में होनेवाली रति का त्याग करनेवाले परमात्मा अबहुभाषी याने कभी एक, दो बात करने के सिवा सदा मौन हि रहकर संयमानुष्ठान में उद्यम करतें थे... V सूत्रसार : भगवान महावीर संयम साधना काल में सदा समिति गुप्ति में दृढ थे। न उन्हें भोगों के प्रति अनुराग था और न संयम में अति थी। ये दोनों महादोष साधक को साधना पथ से विचलित करने वाले हैं अतः भगवान ने इन दोनों का सर्वथा त्याग कर दिया था। वे साधना काल में अत्यन्त कम बोलते थे। जैसे कि- गोशालक ने पुछा कि- इस तिल के पौधे में कितने बीज या जीव हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने तथा तेजोलेश्या के प्राप्त होने की विधि बताने के लिए ही वे बोले थे... इसके अतिरिक्त वे सदा मौन ही रहते थे और इस तरह . साधना में संलग्न रहते हुए उन्होंने सभी परीषहों पर विजय प्राप्त कीया / भगवान के ऊपर हुए उपसर्गों का विश्लेषण करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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