________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका # 1 - 9 - 0 - 0 // 221 (30) कर्मप्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है, वे तीस कर्म प्रकृतियां यह है... 1. देवगति, 2. देव आनुपूर्वी, 3. पंचेंद्रियजाति, 4. वैक्रिय शरीर, 5. वैक्रिय अंगोपांग, 6. आहारक शरीर 7. आहारक अंगोपांग, 8. तैजस शरीर, 9. कार्मणशरीर, 10. समचतुरस्रसंस्थान, 11. वर्ण, 12. गंध, 13. रस, 14. स्पर्श, 15. अगुरूलघु, 16. उपघात, 17. पराघात, 18. उच्छ्वास, 19. शुभविहायोगति, 20. बस, 21. बादर, 22. पर्याप्तक, 23. प्रत्येक, 24. स्थिर, 25. शुभ, 26. सुभग, 27. सुस्वर, 28. आदेय, 29. निर्माण एवं 30. तीर्थंकर नाम कर्म... तथा अपूर्वकरण के अंतिम समय कालक्षण में हास्य, रति, भय एवं जुगुप्सा का बंध विच्छेद होता है तथा हास्यादि षट्क (6) का उदय विच्छेद होता है, एवं सभी कर्मप्रकृतियों के अशुभ उपशमना निधत्ति एवं निकाचनाकरण का भी विच्छेद होता है.... इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि आदि 4-5-6-7 गुणस्थानकों से लेकर अपूर्वकरण (आठवे) गुणस्थानक के अंतिम समय पर्यंत में दर्शनसप्तक स्वरूप अनंतानुबंधि आदि सात कर्मो का उपशमन होता है... ___ उस के बाद अनिवृत्तिकरण नाम के नववे गुणस्थानक का प्रारंभ होता है... इस नवमे गुणस्थानक में रहा हुआ साधु चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस (21) प्रकृतियों का अंतर कर के सर्व प्रथम नपुंसकवेद की उपशमना करता है, उसके बाद स्त्रीवेद कर्म की उपशमना करता है, उस के बाद हास्यादि षट्क (6) कर्मो की उपशमना करता है, उस के बाद पुरूषवेद कर्म के बंध एवं उदय का विच्छेद करता है... उस के बाद एक समय न्यून दो आवलिका काल में पुरूषवेद का उपशम करता है, उस के बाद अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय क्रोध द्वय की उपशमना करता है... उस के बाद संज्वलन क्रोध की उपशमना करता है... इसी प्रकार मानत्रिक, एवं मायात्रिक की उपशमना करता है, उसके बाद संज्वलन लोभ का सूक्ष्म खंड खंड करता है, और संज्वलन लोभ के खंड खंड करने के अंतिम समय में अप्रत्याख्यानीय एवं प्रत्याख्यानीय लोभ का उपशम करता है, इसी प्रकार नवमे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक के अंतिम समय पर्यंत में मोहनीयकर्म की उदय योग्य 28 कर्म प्रकृतिओं में से 7 + 20 = 27 कर्मो की उपशमना हो जाती है... अब संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खंडो का अनुभव-वेदन करता हुआ वह साधु सूक्ष्मसंपराय नाम के दशवे गुणस्थानक में प्रवेश करता है... इस दशवे सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक के अंतिम समय पर्यंत में ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय चार, अंतराय पांच तथा यश:कीर्ति एवं उच्चगोत्र कर्म का बंध विच्छेद होता है, और संज्वलन लोभ का भी उपशमन होता है, तब वह साधु महात्मा उपशांतवीतराग होता है, अर्थात् उपशांतमोह नाम के ग्यारहवे गुणस्थानक