________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका . 1-6-2 - 4 (197) 39 निष्किञ्चना: उक्ताः, ये लोके अनागमनधर्माणः आज्ञया मामकं धर्मं एषः उत्तरवादः इह मानवानां व्याख्यातः, अत्र उपरतः तत् झोषयन् आदानीयं परिज्ञाय पर्यायेण विवेचयति, इह एकेषां एकचर्या भवति, तत्र इतरे इतरेषु कुलेषु शुद्धषणया सर्वैषणया स: मेधावी परिव्रजेत्, सुरभिः वा दुर्गन्धः वा, तत्र भैरवाः प्राणिनः, प्राणिनः क्लेशयन्ति, तान् स्पर्शान् स्पृष्टः धीरः अतिसहेत, इति ब्रवीमि // 197 // III सूत्रार्थ : - हे शिष्यो ! सभी शंका-कुशंकाओं को सर्वथा छोड़ कर समित दर्शन-सम्यग् दृष्टि सम्पन्न होने को भाव नग्नता कहते हैं, जो इस मनुष्य लोक में दीक्षित होकर पुनः घर में आने की अभिलाषा नहीं रखते वे ही उत्तम-साधु हैं। इस मनुष्य लोक में यह उत्कृष्ट वाद-सिद्धांत कथन किया गया है कि- भगवान की आज्ञा ही मेरा धर्म है। इस जिनशासन में सुस्थित साधु आठ प्रकार के कर्मों के भेद प्रभेदों को जानकर संयम पर्याय से कर्म क्षय करता है। इस जिनशासन में कितनेक हलुकर्मी जीव एकाकी विहार प्रतिमा में प्रवृत्त हो जाते हैं, विविध प्रकार के अभिग्रहों को क्रमश: धारणा करतें हैं, अतः वह सामान्य मुनियों से विशिष्टता रखता है, अज्ञात कुलों में निर्दोष तथा एषणीय भिक्षा को ग्रहण करता है। ___ यदि उसे अज्ञात कुलों में सुगन्ध युक्त या दुर्गंध युक्त आहार मिला हो तब वह साधु उसमें राग या द्वेष न करे। यदि एकाकी प्रतिमा वाला भिक्षु किसी श्मशानादि स्थान पर ठहरा हुआ है और वहां पर यक्षादि के भयानक शब्द सुनाई पडें, तब वह साधु संयम-साधना से विचलित न हो... तथा यदि व्याघ्रादि भयानक प्राणी, अन्य प्राणियों को संताप दे रहे हों या वे हिंसक प्राणी अपने खुद पर आक्रमण कर रहे हों, तब वह साधु उन दुःख रूप स्पर्शो को प्रशमभाव से सहन करे। तात्पर्य यह है कि- मोक्षाभिलाषी साधु को यदि किसी प्रकार के हिंसक प्राणी कष्ट दें, तब भी वह साधु उन कष्टों-परिषहों को धैर्य पूर्वक सहन करने में तत्पर रहे। इस प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : ___परीषहों से होनेवाली सभी विस्रोतसिका याने कामभोगेच्छा का त्याग करके सम्यग्दर्शन को पाया हुआ वह सम्यग्दृष्टि साधु परीषहों से प्राप्त दुःखदायक कठोर स्पर्शों को समभाव से सहन करें... हे श्रमण ! इन परीषहों को समभाव से सहन करनेवाले साधु अकिंचन याने निग्रंथ कहे गये हैं... इस मनुष्य लोक में अनागमनधर्मा याने स्वीकृत प्रतिज्ञा के भार को दृढता के साथ वहन करनेवाले अर्थात् प्रतिज्ञा को तोडकर पुन: घर में जाने की इच्छा नहि रखनेवाले धीर वीर गंभीर निग्रंथ साधु हि भावनग्न-अचेलक कहे गये हैं...