________________ 38 1 -6-2-4 (197) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मुहपत्ती, रजोहरण, चोलपट्टक आदि चौदह उपकरण रखने का विधान है। पंचाचारात्मक-संयम की साधना का मूलभूत उद्देश यह है कि- अपने अन्दर में स्थित राग-द्वेष, काम-क्रोध, तृष्णा-आसक्ति आदि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना। अतः साधक को प्रत्येक परिस्थिति में समभाव को बनाए रखना चाहिए। उसे कोई वन्दन-नमस्कार करे तो गविष्ठ नही होना चाहिए और यदि कोई तिरस्कार एवं प्रताड़न करे तो व्यग्र एवं क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। उसे दोनों अवस्था ओं में एक रूप रहना चाहिए और दोनों व्यक्तियों के लिए एक समान कल्याण की भावना रखनी चाहिए। यह हि साधुत्व की संयम-साधना है; संयम की साधना के द्वारा साधु सदा-सर्वदा कर्मों की निर्जरा करता हुआ निष्कर्म बनने का प्रयत्न करता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त अचेलक शब्द में 'अ' देशतः निषेध अर्थ में प्रयोग किया गया है। अत: अचेलक शब्द का अर्थ बिल्कुल नग्न नहीं, परंतु स्वल्प प्रमाणोपेत श्वेत वस्त्र रखना होता है। 'ओमोयरियाए संचिक्खइ' का अर्थ है- साधु को औनोदर्य तप-अल्पाहार करना चाहिए। अधिक आहार करने से शरीर में आलस्य आता है, जिसके कारण साधक ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की भली-भांति आराधना नहीं कर सकता है। अंत: रत्नत्रय की साधना के लिए साधक को शुद्ध एषणीय एवं सात्त्विक आहार भी भूख की मात्रा से भी भोजन थोड़ा न्यून खाना चाहिए। साधना के विषय में कुछ विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी जी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 197 // 1-6-2-4 चिच्चा सव्वं विसुत्तियं फासे समियदंसणे, एए भो ! नगिना वुत्ता जे लोगंसि अनागमण-धम्मिणो आणाए मामगं धम्म एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिजं परिण्णाय परियाएण विगंचइ, इह एगेसिं एगचरिया होइ, तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए सब्भिं अदुवा दुन्भिं अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति, ते फासे पुट्ठो धीरे अहियासिजासि त्तिबेमि // 197 // // संस्कृत-छाया : त्यक्त्वा सर्वां विस्रोतसिकां (स्पर्शान्) स्पृशेत् समितदर्शनः एते भोः !