________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-2-3 (196) 37 3. यह पुरुष दिप्त-उग्र चित्तवाला है, 4. मुनी यह सोचे कि- मेरे हि कीये हुए कर्म इसी जन्म में भुगतने योग्य होने से उदय में आये हुए हैं, कि- जिस उदयागतकर्मो के कारण से यह पुरुष मेरा आक्रोश तिरस्कार करता है, अथवा बंधन, ताकडन, परितापनादि करता है.... 5. यदि मैं इन कष्टों को अच्छे भाव-प्रशमभाव से सहन करूं तो निश्चित हि मेरे पापकर्मों का क्षय होगा... इत्यादि... तथा केवलज्ञानी प्रभु भी उदय में आये हुए कर्मो से उत्पन्न परीषह एवं उपसर्गादि को उपरोक्त पांच विभावनाओं के द्वारा हि सहन करे... यावत् मुझे इन कष्टों को समभाव से सहन करते हुए देखकर, यह अनेक छद्मस्थ श्रमण, निग्रंथ भी स्वकृत कर्मोदय से उत्पन्न हुए परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करेंगे... इत्यादि... परीषह दो प्रकार के होते हैं... 1. अनुकूल एवं 2. प्रतिकूल... अतः इन दोनों प्रकार में से जो कोइ परीषह उत्पन्न हुआ हो तब उनको प्रशमभाव से सहन करे... जो परीषह साधु के मन को आह्लादित-प्रसन्न करे वे सत्कार पुरस्कारादि अनुकूल परीषह है, और जो परीषह साधु के मन को अनिष्ट हो; वे क्षुधा-तृषादि प्रतिकूल परीषह हैं... अथवा ही याने लज्जा स्वरूप याचना अचेलकादि... एवं अलज्जाकारी शीत, उष्ण, दंशमशकादि... इस प्रकार इन दोनों प्रकार के परीषहों को प्रशमभाव से सहन करता हुआ साधु प्रव्रज्या का पालन करे... v सूत्रसार : . साधना में पंचाचारात्मक-संयम की निष्ठा एवं सहिष्णुता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। निष्ठाश्रद्धा के बिना संयम का परिपालन नहीं किया जा सकता। इसलिए साधक को धर्मोपकरणों के द्वारा संयम-साधना में सदा संलग्न रहना चाहिए। साधक चाहे जितनी उत्कृष्ट साधना में संलग्न हो, फिर भी जब तक शरीर है, तब तक आहारादि कुछ उपकरणों की आवश्यक्ता रहती ही है। परन्तु, वह साधु उन उपकरणों को भोग-विलास की दृष्टि से नहीं किंतु केवल संयम की साधना में सहायक होने के कारण अनासक्त भाव से यथाविधि स्वीकार करता है। अत: उसके उपकरण मर्यादित, निर्दोष एवं साधना में तेजस्विता उत्पन्न करने वाले होते हैं। __वेश-भूषा का भी जीवन पर प्रभाव होता है। यदि किसी सैनिक को युद्ध-संग्राम के समय यदि निश्चित युनिफोर्म वेश-भूषा को छोडकर अन्य वेशभूषा पहना दी जाए तो उससे उसके जीवन में स्फूर्ति शूरवीरता के बदले प्रमाद-आलस दिखाई देगी और उसको कोई भी सैनिक नहीं समझेगा। क्योंकि सैनिक के लिये उसके कार्य के अनुरूप सैनिक की पोषाक होनी आवश्यक है। इसी प्रकार साधक के लिए उसकी संयम-साधना एवं त्याग वृत्ति को प्रकट करने वाली निर्दोष एवं सात्त्विक वेशभूषा होनी चाहिए। इसलिए आगम में साधु के लिए