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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-९-२-६ (293) // 273 कुसलानुष्ठान में प्रवृत्त कीया.. छद्मस्थकाल में ग्रामानुग्राम विचरते हुए प्रभुजी जहां कहिं शय्या-वसति करतें थे वहां निद्रा के अभिप्राय से शयन नहि करतें थे... V सूत्रसार : . प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि- भगवान ने कभी भी निद्रा नहीं ली। क्योंकि यह भी प्रमाद का एक रूप है। इसलिए भगवान सदा इससे दूर करने का प्रयत्न करते थे। निद्रा दर्शनावरणीय कर्म के उदय से आती है। उस कर्म का क्षय होने के बाद निद्रा नहीं आती और भगवान उस कर्म को क्षय करने के लिए प्रयत्नशील थे। अतः जब भी निद्रा आने लगती थी तब वे सावधान होकर जागृत होने का प्रयत्न करते। इस से स्पष्ट है कि- उन्होंने कभी भी निद्रा लेने का प्रयत्न नहीं किया... ऐसा वर्णन आता है कि- एक बार भगवान को क्षण मात्र के लिए झपकी-निद्रा आ गई थी और उसमें उन्होंने 10 स्वप्न देखे थे। परन्तु, उन्होंने निद्रा लेने का कभी प्रयत्न नहीं किया... ___ वे निद्रा को कैसे दूर करते थे, इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 293 // 1-9-2-6 संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उट्ठाए। . निक्खम्म एगया राओ बहि चंकमिया मुहत्तगं // 293 // II संस्कृत-छाया : संबुध्यमानः पुनरपि, अवगच्छन् भगवान् उत्थाय। निष्क्रम्य एकदा रात्रौ, बहिश्चंक्रम्य मुहूर्त्तकम् // 293 // III सूत्रार्थ : निद्रा रूप प्रमाद को संसार का कारण जानकर भगवान सदा अप्रमत्त भाव से संयम साधना में संलग्न रहते थे। यदि कभी शीत काल में निद्रा आने लगती तो भगवान मुहूर्त मात्र के लिए बाहर निकल कर चंक्रमण करने लगते। वे थोड़ी देर घूम-फिर कर पुनः ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न हो जाते।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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