________________ 2721 -9 - 2 - 5 (292) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन v सूत्रसार : भगवान महावीर ने 12 वर्ष 6 महीने और 15 दिन तक पूर्व सूत्रों में उल्लिखित स्थान-वसतिओं में वर्षावास एवं रात्रिवास किया। इतने समय तक भगवान छद्मस्थ अवस्था में रहे और सदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। इतने लम्बे काल में भगवान ने कभी भी निद्रा नहीं ली और प्रमाद का सेवन भी नहि किया। क्योंकि- प्रमाद से संयम साधना दूषित होती है। इसलिए साधक को सदा सावधानी के साथ विवेक पूर्वक क्रिया करने का आदेश दिया गया है। आदेश ही नहीं, प्रत्युत भगवान महावीर ने अपने साधना काल में अप्रमत्त रहकर साधक के सामने प्रमाद से दुर रहने का आदर्श रखा है। भगवान की अप्रमत्त साधना का और उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 292 // 1-9-2-5 निपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए। जग्गावेइ य अप्पाणं इसिं साई य अपडिन्ने // 292 // // संस्कृत-छाया : निद्रामपि न प्रकामतः, सेवते भगवान् उत्थाय। जागरयति च आत्मानं, ईषच्छायी च अप्रतिज्ञः // 292 // II सूत्रार्थ : भगवान महावीर निद्रा का सेवन नहीं करते थे। यदि कभी उन्हें निद्रा आती भी तो वे सावधान होकर आत्मा को जगाने का यत्न करते। वे कभी भी निद्रा लेने की इच्छा नहि करते थे। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामीजी अपने श्रमण जीवन में अप्रमत्त भाववाले थे, अत: निद्रा का प्रकाम भाव से सेवन नहि करते थे... कहा है कि- छद्मस्थ काल के साढे बारह वर्ष के समय में मात्र अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत का निद्रा प्रमाद हुआ था... वह इस प्रकार- अस्थिक गांव के व्यंतर देव के मंदिर में जब परमात्मा वसति कर के कायोत्सर्ग ध्यान करते थे, तब रात्रि में व्यंतर देव ने प्रभुजी के उपर उपसर्ग कीये थे, उस वख्त अंतमुहूर्त्तकाल प्रमाण- निद्रा में प्रभुजी ने दश स्वप्न देखें थे... जब निद्रा खुल गइ तब परमात्मा ने अपनी आत्मा को