________________ 274 // 1 - 9 - 2 - 7/8 (294-295) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : निद्रा-प्रमाद से निवृत्तचित्तवाले महावीरस्वामीजी ऐसा जानते थे कि- यह निद्रा स्वरूप प्रमाद आत्मा को संसार में भटकने का कारण है, अत: संयम के भाव को जाग्रत कर के सदा संयमानुष्ठान में लीन रहते थे.. . जैसे कि- एक बार शीतकाल की रात्रि में जब निद्रा-प्रमाद की संभावना हो रही थी, तब परमात्मा निद्रा-प्रमाद को दूर करने के लिये मुहूर्त्तमात्रकाल पर्यंत वसति के बाहार लटार मारने स्वरूप थोडा सा घूम-घूमाकर पुनः कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हुए थे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- भगवान महावीर सदा प्रमाद से दुर रहे हैं। उन्होंने कभी भी निद्रा लेने का प्रयत्न नहीं किया। क्योंकि- निद्रा दर्शनावकरणीय कर्म के उदय से आती है और दर्शनावरणीय कर्म संसार परिभ्रमण का कारण है। अतः भगवान उसे नष्ट करने के लिए उद्यत हो गए। निद्रा आने के मुख्य कारण हैं- अति भोग विलास और अति आहार। भगवान ने भोगों का सर्वथा त्याग कर दिया था और आहार भी वे स्वल्प ही करते थे। उनके बहुत से दिन तो तपस्या में बीतते थे, पारणे के दिन भी वे रूक्ष एवं स्वल्प आहार ही स्वीकार करते थे। इससे उनकी अप्रमत्त साधना में तेजस्विता बढ़ती गई। फिर भी यदि कभी उन्हें निद्रा आने लगती तब वे खड़े होकर उसे दूर करते थे, यदि सर्दी के दिनों में गुफा में या किसी मकान में स्थित रहते हुए निद्रा आने लगती तो वे बाहर खुले में आकर थोड़ी देर चंक्रमण करने-टहलने लगते। इस तरह भगवान सदा द्रव्य एवं भाव से जागृत रहे। द्रव्य से उन्होंने कभी निद्रा का सेवन नहीं किया और भाव से सदा रत्नत्रय की साधना में संलग्न रहे। ___ भगवान की विहार चर्या में उत्पन्न होने वाले कष्टों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 7 // // 8 // // 294-295 // 1-9-2-7/8 सयणेहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य। संसप्पगा य जे पाणा अदुवा जे पक्खिणो उवचरंति // 294 // अदु कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सत्ति हत्था य। अदु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगइया पुरिसां य // 295 //