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________________ 124 // 1-8-2 - 3 (217) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किंतु मूलगुण की स्थिरता के लिये उत्तर गुण कहे और उन उत्तरगुणों में पिंडैषणा याने आहारादि के दोष एवं निर्दोषता का स्वरूप कहे यहां पिंडैषणा-सूत्र के उपयुक्त भावानुवाद कहे... अन्यत्र भी कहा है कि- जहां गृहस्थ स्वयं कष्ट न पावे एवं अन्य को भी कष्ट का निमित्त न बने और जो मात्र धर्म (परमार्थ) के लिये हि दीया जावे वह दान है... इत्यादि... यह सब कुछ जिस किसी गृहस्थ को न कहें किंतु उस गृहस्थ के आचार-विचार को देखकर जो उचित हो वह कहें... जैसे कि- यह पुरुष कौन है ? कौन से देव की पूजा करता है ? तथा यह पुरुष किसी एक मत की पक्कडवाला है; या सभी मत-मतांतरों को मानता है तथा मध्यस्थ प्रकृति-भद्रक है, या सम्यग्दृष्टि है ? इत्यादि यथायोग्य जानकर यथाशक्ति समझावें... विशेष शक्ति सामर्थ्य हो, तो पंचावयव अनुमान प्रमाण से या अन्य प्रकार से समझ दें... और स्वपक्ष की स्थापना करके परपक्ष का खंडन करें, यदि वह गृहस्थ यह बात समझ न शके और कहने पर यदि गुस्सा करे तो साधु मौन हि धारण करें... यदि समझाने का सामर्थ्य हो और दाता समझना चाहे तो साधुओं के आचार दिखलावे... यदि गृहस्थ समझना न चाहे तो साधु मौन रहते हुए हि अपने संयमानुष्ठान में लीन रहकर अनुक्रम से उद्गमादि दोष न लगे इस प्रकार आहारादि की गवेषणा करे तथा आत्मगुप्त याने सतत संयमानुष्ठान के उपयोगवाला रहे... पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी कहते हैं कि- हे जंबू ! यह कल्प्य एवं अकल्प्य की विधि वर्धमान स्वामीजी ने आत्महित के लिये कही है; अतः मैं भी तुम्हें कहता हूं... V सूत्रसार : साधना का महत्त्व सहिष्णुता में है। अत: कठिनाई के समय भी साधु को समभाव पूर्वक परीषहों को सहते हुए संयम का परिपालन करना चाहिए। परन्तु, परीषहों के उपस्थित होने पर उसे संयम से विचलित नहीं होना चाहिए। साधना की कसौटी परीषहों के समय ही होती है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- साधु को खाने-पीने के पदार्थों एवं वस्त्रपात्र आदि के प्रलोभन में आकर अपने संयम मार्ग का त्याग नहीं करना चाहिए। परन्तु, ऐसे समय में भी समस्त प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध संयम का पालन करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति स्वादिष्ट पकवान बनाकर या सुन्दर एवं कीमती वस्त्र-पात्र लाकर दे और उसे ग्रहण करने के लिए अत्यधिक आग्रह भी करे, तब भी साधु उन्हें स्वीकार न करे। वह उसे स्पष्ट शब्दों में समझाए कि- इस तरह का आहार आदि लेना हमें नहीं कल्पता है।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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