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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 2 - 3 (217) 123 प्रकार से पीड़ित करो, जिससे इसकी जल्दी ही मृत्यु हो जाए। इत्यादि कठोर परीषहों-कष्टों की उपस्थिति में भी वह साधु उन कष्टों को बड़े धैर्य से सहन करे। यदि वे समझने योग्य हो, तब वह साधु उन्हें साध्वाचार का यथार्थ स्वरूप समझाकर शान्त करे। यदि वे अयोग्य व्यक्ति हैं, तब वह साधु वचन-गुप्ति का पालन करे-मौन रहे। वह अनुक्रम से अपने आचार का सम्यक् प्रतिलेखन करके आत्मा से गुप्त हुआ सदा उपयोग पूर्वक क्रियानुष्ठान में संलग्न रहे। तीर्थंकरों ने इस विषय में यह हि प्रतिपादन किया है। IV टीका-अनुवाद : भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करनेवाले उन साधुओं को पुछकर या बिना पुछे हि कोइ गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! मैं आपके लिये आहारादि एवं मकान तैयार करुंगा... साधु आहारादि स्वीकार करने की अनुमति न दे तो भी वह गृहस्थ आहारादि तैयार करता है... और आग्रह-बल पूर्वक आहारादि ग्रहण करवाएगा... तथा साधुओं के आचार विधि को जाननेवाला कोई अन्य गृहस्थ साधु को पूछे बिना हि आहारादि तैयार करके सोचता है कि- मैं किसी भी बहाने से साधुओं को यह आहारादि ग्रहण करवाउंगा... यह विचार करके आहारादि तैयार करे... किंतु बार बार विनंती करने पर भी जब साधु वैसे दोषवाले आहारादि को ग्रहण न करे तब वह गृहस्थ गुस्से में आकर सोचे कि- सुख एवं दुःख से रहित होने के कारण से यह साधु लोग लोक व्यवहार को भी जानते नहि हैं; इत्यादि शोचकर या राजा के आदेश को लेकर साधुओं के प्रति धिक्कार के भाव को लेकर गुस्से में आकर साधुओं को लकुट-दंडादि से मारे भी... ... बहोत सारे धन का खर्च करके तैयार करके लाये हुए आहारादि जब साधु ग्रहण न करे, तब वह गृहस्थ साधुओं को विभिन्न प्रकार से दु:ख-पीडा देता है... जैसे कि- वह गृहस्थ साधुओं को स्वयं मारे या अन्य लोगों को कहे कि- इन साधुओं को दंड-लकडी से मारो... या हाथ-पाउं काटकर मार डालो, या अग्नि आदि से जलाओ, या वस्त्रादि लूट लो, या सब कुछ वस्त्र-पात्रादि लूट लो, या तत्काल मर जावे वैसा करो... इस प्रकार विभिन्न प्रकार से पीडा-दुःख देवे... इस परिस्थिति में होनेवाले उन कठोर दुःख वेदना-पीडाओं को वह धीर गंभीर साधु समभाव से सहन करे... तथा अन्य भी भूख-तरस आदि परीषहों को भी सहन करे... परंतु कभी भी उपसर्ग या परीषहों से डरकर औद्देशिकादि दोषवाले आहारादि को ग्रहण न करे... अथवा अनुकूल उपसर्गादि से भी उन दोषवाले आहारादि को ग्रहण न करे, किंतु यदि सामर्थ्य हो तो जिनकल्पिक से भिन्न स्थविर कल्पवाले साधुओं के मूलगुण एवं उत्तरगुण स्वरूप आचारविचारादि उन गृहस्थों को समझावे... यहां नय-प्रमाण से द्रव्यादि के गहन विचार न कहे,
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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