________________ 1221 - 8 - 2 - 3 (217) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सूत्रसार : पूर्व सूत्र में उल्लेखित विषय को स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कियदि कोई श्रद्धानिष्ठ गृहस्थ मुनि को विना बताए ही उसके निमित्त आहारादि बनाकर या वस्त्रपात्र आदि खरीद कर रख ले और आहार के समय मुनि को आहारादि के लिए आमन्त्रण करे। उस समय आहार आदि की गवेषणा करते हुए मुनि को अपनी बुद्धि से या तीर्थंकरोपदिष्ट विधि से या किसी के कहने से यह ज्ञात हो जाए कि- यह आहारादि मेरे लिए तैयार किया गया है, या खरीदा गया है, तब वह साधु उन आहारादि का स्वीकार न करे। वह साधु उस गृहस्थ को स्पष्ट शब्दों में कह दे कि- इस तरह हमारे लिए बनाया हुआ या खरीदा हुआ आहारादि हम नहीं लेते हैं। वह उसे साध्वाचार का सही बोध कराए, जिससे वह फिर कभी किसी भी तरह का सदोष आहारादि देने का प्रयत्न न करे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 3 // // 217 // 1-8-2-3 भिक्खू च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदह दहह पयह आल्पह विलुपह सहसाकारेह विष्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तक्किया अंणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुव्वेण सम्म पडिलेहए आयगुत्ते बुद्धेहिं एवं पवेइयं // 217 // II संस्कृत-छाया : भिधं च खलु पृष्ट्वा वा अपृष्ट्वा वा ये इमे आहृत्य ग्रन्था वा स्पृशन्ति, सः हन्ता, हत, क्षणुत, छिन्त, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत सहसात् कारयत, विपरामृशत, तान् स्पर्शान् धीरः स्पृष्टः अधिसहेत, अथवा आचारगोचरं आचक्षीत, तर्कयित्वा अनीदृशं अथवा वाग्गुप्त्या गोचरस्य आनुपूा सम्यक् प्रत्युपेक्षेत, आत्मगुप्तः बुद्धैः एतत् प्रवेदितम् // 217 // III सूत्रार्थ : कोई सद्गृहस्थ, साधु को पूछकर या विना पूछे ही बहुतसा धन खर्चकर अन्नादि भोजन बना करके साधु के पास लाकर उसे ग्रहण करने की प्रार्थना करता है। परन्तु, जब साधु उसे अकल्पनीय समझकर लेने से इनकार करता है, तब क्रोध के वशीभूत होकर वह गृहस्थ यदि साधु को परिताप देता है, मारता है तथा दूसरों से कहता है कि- इस भिक्षु को मारो, इसका विनाश करो, इसके हाथ-पैर काट लो, इसको अग्नि में जला दो, इसके मांस को काटकर पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो, इसका सब कुछ लूट लो और इसे विविध