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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-2 - 3 (217) 121 भांवों को व्यक्त न करता हुआ, साधु को दान देने के लिए अन्न, वस्त्रादि लाकर या उसके निवास के लिए सुन्दर स्थान बनवाकर देना चाहता है। तब आहारादि की गवेषणा में वह भिक्षु अपनी स्व बुद्धि से अथवा तीर्थंकरोपदिष्ट विधि से या किसी अन्य परिजन आदि से उन पदार्थों के सम्बन्ध में सुनकर, यदि वह यह जान ले कि वस्तुतः यह गृहस्थ मेरे उद्देश्य से बनाए या खरीद कर लाए हुए आहार, वस्त्र और मकान आदि मुझे दे रहा है, तो वह भिक्षु उस गृहस्थ से कहे कि- ये पदार्थ मेरे सेवन करने योग्य नहीं है। अत: में इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : श्मशानादि स्थानो में विचरनेवाले उन साधुओं के पास जाकर अंजली जोडकर कोइक प्रकृति भद्रक गृहस्थ अपनी समझ के अनुसार अपने सच्चे अभिप्राय को छुपाता हुआ और कोइ सच्ची बातं न जाने इस प्रकार मैं साधुओं को आहारादि दूं, ऐसा सोचकर जीवों का वध करके आहारादि तैयार करे... क्योंकि- यदि ऐसा मैं करूं तो हि साधुजन आहारादि ग्रहण करे... वापरे... तथा साधुओं को निवास के लिये मकान बनावे. किंतु वे साधुजन अपनी सन्मति से या अन्य के कहने से या तीर्थंकरो के उपदेश अनुसार या अन्य कोइ प्रकार से जाने कियह गृहस्थ जीवों का घात करके हमारे लिये आहारादि बनाकर दे रहा है, तथा मकान बना रहा है इत्यादि... तब वह साधु पर्यालोचन करके वास्तविक सच्ची बात जानकर उस गृहस्थ को कहे कि- इस प्रकार हमारे लिये बनाये हुए आहारादि हमे अकल्पनीय है; अतः हम नहि वापरेंगे... ऐसा संक्षेप से कहे, यदि वह गृहस्थ श्रावक हो; तो संक्षेप से पिंडनियुक्ति का अर्थ कहे, और अन्य प्रकृति भद्रक गृहस्थ को संक्षेप से उद्गमादि दोषों का स्वरूप कहे, तथा प्रासुक याने निर्दोष आहारादि दान का फल कहे, और यथाशक्ति धर्मकथा भी कहे.... __वह इस प्रकार- श्रद्धावाला पुरुष शुद्ध मनोभाव से उचित काल एवं स्थान में साधुजनों का सत्कार करके साधुओं को आहारादि का दान दें... तथा गुणाधिक ऐसे सत्पुरुषों को जो मनुष्य विनय के साथ थोडा भी उचित दान देता है; उसे वह थोडा सा भी दान वटवृक्ष के समान महान् फल देता है... तथा प्राज्ञ पुरुष सुपात्र में दान देने के द्वारा दुःख-समुद्र को तैरता है, जिस प्रकार वणिक् लोग छोटी सी नौका (जहाज) से बहोत बड़े समुद्र को तैरते हैं... इत्यादि... यहां इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है; एवं ब्रवीमि शब्द का अर्थ पूर्वोक्त स्वरूप एवं और आगे कहे जानेवाले स्वरूप है इत्यादि...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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