________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6 - 5 - 3 (209) 85 क्योंकि- आरम्भ-समारम्भ एवं विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं करता है। वह रात-दिन अशान्ति की आग में जलता रहता है। इसलिए साधक को आरम्भ आदि से सदा दूर रहना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 3 // // 209 // 1-6-5-3 कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगायवट्ठी कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउ तिबेमि // 209 // II संस्कृत-छाया : कायस्य व्याघातः एषः संग्रामशीर्ष: व्याख्यातः सः हु पारगामी मुनिः, अविहन्यमानः फलकवत् अवतिष्ठते, कालोपनीत: काङ्क्षत कालं यावत् शरीरभेदः इति ब्रवीमि // 209 // // सूत्रार्थ : . जिस प्रकार वीर योद्धा संग्राम में निर्भय होकर विजय को प्राप्त करता है। उसी तरह मुनि भी मृत्यु के आने पर फलक की तरह स्थिर चित्त रहकर पादोगमन आदि अनशन (संथरो) करके- जब तब तक आत्मा शरीर के पृथक न हो तब तक मृत्यु की आकांक्षा करता हुआ चिन्तन मनन में संलग्न रहे। ऐसा मुनि संसार से पार होता है। ऐसा में कहता हूं। IV. टीका-अनुवाद : ___ औदारिक तैजस एवं कार्मण यह तीन शरीर का या ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय एवं अंतराय यह चार घातिकर्म का विनाश... अथवा आयुष्य कर्म की अवधि पूर्ण होने पर अंग एवं उपांग की मर्यादा से रहनेवाले औदारिक शरीर का विनाश होता है... जैसे किरणभूमी-संग्राम के अग्र भाग पे रहा हुआ सैनिक शत्रुसेना की और से तिक्ष्ण खड्ग (तलवार) के प्रहार से यद्यपि कभी कुछ चित्तविकार याने क्षोभ को प्राप्त करे, इसी प्रकार मरण समय उपस्थित होने पर परिकर्मित मतिवाले मुनी को भी कभी अन्यथाभाव याने व्याकुलता हो... अतः कहते हैं कि- जो महामुनी मरणकाल में भी व्याकुल न हो, वह हि संसार का अंत करके या कर्मो का विनाश करके पारगामी होता है अर्थात् मोक्षपद प्राप्त करता है... विविध प्रकार के परीषह एवं उपसर्गों का उपद्रव न हो तब वह मुनी वैहानस या