________________ 86 1 -6-5-3 (209) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गार्द्धपृष्ठ या बालमरण को प्राप्त करता है... और परीषहादि का उपद्रव हो तब बाह्य एवं अभ्यंतर तपश्चर्या के द्वारा फलक की तरह स्थिर रहता है. अर्थात परीषहादि से व्याकल नहि होता... तथा मरणकाल जब निकट आवे तब बारह वर्ष की संलेखना के द्वारा अपने आपकी आत्मा का संलेखन करके पर्वतों की गुफा आदि स्थानो में निर्जीव भूमी के उपर पादपोपगमन या इंगितमरण या भक्तपरिज्ञा में से कोई भी एक प्रकार से जब तक आयुष्य कर्म का क्षय हो, अर्थात् शरीर से आत्मा अलग हो, तब तक समाधि से रहते हैं... शरीर से आत्मा का अलग होना उसको हि शरीरभेद या मरणकाल कहते हैं... अर्थात् मरण याने जीव का अत्यंत विनाश नहि किंतु शरीर से अलग होना हि मरण है... “इति" शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है, और ब्रवीमि पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : संसार में जन्म और मृत्यु दोनों का अनुभव होता है। यह ठीक है कि- दुनिया के प्रायः सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरने की कोई आकांक्षा नहीं रखता। मृत्यु का नाम सुनते ही लोग कांप उठते हैं, उससे बचकर रहने का प्रयत्न करते हैं। फिर भी मृत्यु का आगमन होता ही है। इस तरह सामान्य मनुष्य मृत्यु की अपेक्षा जीवन को; जन्म को महत्त्वपूर्ण समझते हैं। परन्तु, महापुरुष एवं ज्ञानी पुरुष मृत्यु को भी महत्त्वपूर्ण समझते हैं। वे महापुरुष भी बचने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु मृत्यु से नहीं, किंतु जन्म से। क्योंकि जन्म कर्म जन्य है और मृत्यु कर्मक्षय का प्रतीक है। आयु कर्म का बन्ध होने पर जन्म होता है और उसका क्षय होना मृत्यु है। अतः ज्ञान-संपन्न मुनि आयु कर्म का क्षय करने का प्रयत्न तो करता है, परन्तु उसके बांधने का प्रयास नहीं करता है। वह सदा कर्म बन्ध से बचना चाहता है। क्योंकि- यदि आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं होगा तो फिर पूर्व कर्म के क्षय के साथ पुनर्जन्म रूक जाएगा और जन्म के अभाव में फिर मृत्यु का अन्त तो स्वतः ही हो जाएगा। जब कर्म ही नहीं रहेगा तो उस के क्षय का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा। इस प्रकार जन्म से बचने का अर्थ है- जन्म-मरण के प्रवाह से मुक्त होना। इसलिए मुनि मृत्यु से भय नहीं रखे। वे मृत्यु को अभिशाप नहीं किंतु वरदान समझते हैं। अत: पण्डित मरण के द्वारा मरण को सफल बनाने में या यों कहिए अपने साध्य को सिद्ध करने में सदा संलग्न रहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही बताया है कि- जैसे योद्धा युद्ध क्षेत्र में मृत्यु को सामने देखकर भी घबराते नहीं। उसी तरह कर्मों एवं मनोविकारों के साथ युद्ध करने में संलग्न साधक भी मृत्यु से भय नहीं रखाता है। यदि कोई उस पर प्रहार भी करदे तब भी वह विचलित नहीं . होता, घातक के प्रति मन में भी द्वेष भाव नहीं लाता है। उस समय भी वह शान्त मन से आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। इसी तरह मृत्यु के निकट आने पर भी वह घबराता नहीं और न उससे बचने का भी कोई प्रयत्न करता है। वह महान् साधु मरण के स्वागत के लिए