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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-५-3 (209) // 87 - संलेखना का प्रारम्भ कर देता है। वह साधु यह संलेखना साधना 12 वर्ष पूर्व प्रारम्भ कर देता है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस प्रकार साधक संलेखना के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता हुआ अपने आपको पंडित मरण प्राप्त करने के लिए तैयार कर लेता है और मृत्यु के समय विना किसी घबराहट के वह पादपोगमन, इंगितमरण या भक्तप्रत्याख्यान किसी भी प्रकार से-आमरण अनशन को स्वीकार करके आत्म-चिन्तन में संलग्न रहता है और जब तक आत्मा शरीर से पृथक् नहीं हो जाती तब तक शान्त भाव से साधना में या यों कहिए कर्मों को क्षय करने में प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार मृत्यु से परास्त नहीं होने वाला साधक मृत्यु के मूल कारण जन्म या कर्म बन्ध को समाप्त करके जन्म-मरण पर विजय पा लेता है। यह हम पहले भी बता चुके हैं कि- जन्म का ही दूसरा नाम मृत्यु है। जन्म के दूसरे क्षण से ही मरण प्रारम्भ हो जाता है। अतः मृत्यु जन्म के साथ संबद्ध है, उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। जन्म का अन्त होते ही मृत्यु का भी अन्त हो जाता है। अतः साधक मृत्यु का अन्त नहीं करता, किंतु पण्डित मरण के द्वारा जन्म का या जन्म के मूल कारण कर्म का उन्मूलन कर देता है और यही उसका सबसे बडा विजय है। अतः साधक को निर्भय एवं निर्द्वन्द्व भाव से पण्डित मरण को स्वीकार करके निष्कर्म बनने का प्रयत्न करना चाहिए। पण्डित मरण को प्राप्त करके सारे कर्मों से मुक्त होना ही उसकी साधना का उद्देश्य है। अत: मुमुक्षु पुरुष को मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए। // इति षष्ठाध्ययने पञ्चमः उद्देशकः समाप्त: // ___ इति धूताभिधं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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