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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8 - 7 - 3 (238) 175 आहार से निर्जरा का उद्देश्य करके या पर उपकार के लिए साधर्मिक की वैयावृत्य करूंगा या मैं अन्य के लाये हुए अतिरिक्त एवं यथापरिगृहीत आहार से निर्जरा के कारण साघर्मियों के द्वारा की जाने वाली वैयावृत्य को स्वीकार करूंगा और निर्जरा के लिए अन्य के द्वारा की जाने वाली वैयावृत्य का अनुमोदन भी करूंगा। इस तरह कर्मों की लघुता को करता हुआ यावत् सम्यग् दर्शन एवं समभाव को सम्यक्तया जाने / IV टीका-अनुवाद : सूत्र के इन पदों की व्याख्या पूर्वे की गइ है अत: मात्र संस्कृत-पर्याय हि कहतें हैं... जिस प्रतिमाधारी भिक्षु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर दूंगा एवं अन्य साधुओं ने लाये हुए आहारादि को वापरुंगा... यह पहला भंग...१. तथा जिस साधु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर दूंगा, किंतु अन्य साधु ने लाये हुए आहारादि को नहि वापरुंगा...२. तथा जिस साधु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर नहि ढुंगा, किंतु अन्य साधुओं ने लाये हुए आहारादि मैं वापरुंगा...३. तथा जिस साधु को ऐसा अभिग्रह हो कि- मैं अन्य साधुओं को आहारादि लाकर नहि दुंगा, एवं अन्य साधुओं ने लाये हुए आहारादि मैं नहि वापरुंगा...४. इस प्रकार के चार * अभिग्रहों में से कोई एक प्रकार का अभिग्रह साधु ग्रहण करे... - अथवा तो इन चार भंगो में से पहेले तीन प्रकार के अभिग्रहों को एक साथ कोइ साधु ग्रहण करे... जैसे कि- कोइ साधु ऐसा अभिग्रह ले कि- मैं मेरे खुद को वापरने से अतिरिक्त आहारादि के द्वारा अर्थात् पिंडैषणा के सात प्रकार में से पांच प्रकार से अग्रहण एवं दो प्रकार से ग्रहण... ऐसे एषणीय आहारादि के द्वारा तथा यथापरिगृहीत याने स्वीकार कीये हुए आहारादि के द्वारा मैं कर्मो की निर्जरा के लिये साधर्मिक साधुओं की वैयावच्च (सेवा-भक्ति) करूं, यद्यपि वे साधु प्रतिमा प्रतिपन्न होने से एक साथ आहारादि नहि वापरते, तो भी एक अभिग्रहवाले अनुष्ठान से युक्त होने से वे परस्पर सांभोगिक होते हैं, अत: “उस समनोज्ञ साधु के उपकार के लिये मैं वैयावच्च करूं' ऐसा अभिग्रह कोइ साधु ग्रहण करे... अथवा तो निर्जरा की कामनावाले उन साधर्मिक साधुओ ने लाये हुए अतिरिक्त एषणीय एवं यथापरिगृहित आहारादि की वैयावच्च (सेवाभक्ति) का स्वीकार करुंगा... तथा जो कोइ अन्य साधर्मिक साधु, कोइ अन्य साधर्मिक साधु की वैयावच्च-सेवा करता है, तो उनकी मैं अनुमोदना करुंगा... वह इस प्रकार- जैसे कि- आपने यह साधर्मिक साधु की वैयावच्च की वह अनुमोदनीय है... ऐसा वचन के द्वारा तथा काया से प्रसन्न मुख एवं दृष्टि के द्वारा तथा मन से भी शुभचिंतन के द्वारा मैं इस वैयावच्च-सेवा की अनुमोदना करता हुं... क्योंकिइस प्रकार मन-वचन एवं काया से अनुमोदना करने से आत्मा कर्मो के भार से हलवा (लघु) होता है...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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