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________________ 290 // 1-9 -3 - 4 (307) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से बचके भरना) एवं दंड प्रहार (ताडन) इत्यादि अनेक प्रकार से उपसर्ग कहते थे... तथा वहां प्रभुजी को आहार भी अंत-प्रांत (लुखा-सुका) तुच्छ असार हि प्राप्त होता था... वे अनार्य मनुष्य अतिशय क्रोधी होते हैं और कपास (रूइ) आदि के अभाव से वे अनार्य लोग तृण वल्कल आदि स्वरूप वस्त्र पहनतें थें अत: निर्लज्ज ऐसे वे अनार्य लोग परमात्मा के साथ बहोत हि विरूप याने अनुचित व्यवहार (आचरण) करतें थे... तथा वहां के कुत्ते भी प्रभुजी के उपर आक्रमण कर के काटते थे... प्रभुजी को चारों और से घेर कर दांतो से काटते थे... ऐसे विषम उपसर्गों में भी परमात्मा अपने धर्मध्यान से विचलित नहि होतें थें... किंतु समभाव में रहते हुए अपने संयमानुष्ठान में दृढ लगे रहते थे... V सूत्रसार : भगवान महावीर जब लाढ़ देश में पधारे तो वहां के लोगों ने उनके साथ क्रूरता का व्यवहार किया। उन्होंने भगवान को डंडों से, पत्थरों से मारा, दान्तों से काटा और कुत्तो की तरह उन पर टूट पडे। इस तरह वहां के निवासियों ने भगवान को अनेक कष्ट दिए। अनार्य व्यक्तियों के हृदय में दया, प्रेम-स्नेह एवं आतिथ्य-सत्कार की भावना कम होती है। इस तरह अनेक कष्ट सहने पर भी भगवान को उपयुक्त आहार नहीं मिलता था। उनका बहुत सा समय तप में ही बीतता था और पारणे के दिन भी तुच्छ एवं रूक्ष आहार उपलब्ध होता था। इतना कष्ट होते हुए भी भगवान ने कभी दु:ख की अनुभूति नहीं की। उन्होंने दुःखो को निवारण करने का प्रयत्न नहीं किया। यदि वे चाहते तो सारे बाह्य कष्टों को भगा सकते थे। उनमें बडी शक्ति थी। परन्तु महान् पुरुष वही होता है जो अपनी शक्ति का उपयोग शरीर के लिए न करके आत्मा के अनन्त सुखों को प्राप्त करने के लिए करता है... अथवा जो सामर्थ्य होते हुए भी आने वाले कष्टों को हंसते हुए सह लेता है, वह हि महान् है... भगवान महावीर अपने ऊपर आने वाले कष्टों को समभाव पूर्वक सहते हुए लाढ देश में विचरे, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 307 // 1-9-3-4 अप्पे जणे निवारेइ लूसणए सुणए दसमाणे। छुच्छुकारिंति आहंसु समणं कुक्कुरा दसंतुत्ति // 307 // संस्कृत-छाया : अल्पः जनः निवारयति लूषकान् दशतः। सीत्कुर्वन्ति हत्वा श्रमणं कुर्कुरा दशन्तु
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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