________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-8-6 - 4 (234) 163 ___ इस प्रकार अनासक्त भाव से रूक्ष आहार करने से शरीर का रक्त एवं मांस सूख जाता है, उस समय साधक के मन में समाधि मरण की भावना उत्पन्न होती है। उसी भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 234 // 1-8-6-4 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इमंमि समये इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टिज्जा, अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टित्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिवुडच्चे // 234 // II संस्कृत-छाया : यस्य च भिक्षोः एवं भवति-यत् ग्लायामि च खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरं अनुपूर्वेण (आनुपूर्व्या) परिवोढुम्। सः आनुपूर्व्या आहारं संवर्तयेत्, आनुपूर्येण आहारं संवर्त्य कषायान् प्रतनून् कृत्वा समाहितार्चः फलकावस्थायी उत्थाय भिक्षुः अभिनिर्वृतार्चः॥ 234 // III सूत्रार्थ : . जिस भिक्षु को यह अध्यवसाय होता है कि- इस समय मैं संयम साधना का क्रियानुष्ठान करते हुए ग्लानि को प्राप्त हो रहा हूं। रोग से पीडित हो गया हूं। अत: मैं इस शरीर को क्रियानुष्ठान में भी नहीं लगा सकता हूं। ऐसा सोचकर वह भिक्षु अनुक्रम से तप के द्वारा आहार का संक्षेप करे और अनुक्रमेण आहार संक्षेप करता हुआ कषायों को स्वल्प-कम करके आत्मा को समाधि में स्थापित करे। रोगादि के आने पर वह फलकवत् सहनशील बनकर पंडित मरण के लिए उद्यत हो कर शरीर के सन्ताप से रहित बने। वह भिक्षु संयम में स्थिर होकर नियमित क्रियानुष्ठान में लगा रहने से समाधि पूर्वक इंगित मरण को प्राप्त कर लेता है। IV टीका-अनुवाद : ____ एकत्व भावना से भावित साधु आहार एवं उपकरण में लाघवता को प्राप्त करता है... वह इस प्रकार... वह साधु सोचे कि- अभी इस ग्लान अवस्था में मैं ग्लानि को पाया हुआ हुं अथवा तो रुक्ष-आहारादि से होनेवाले रोगों से मैं पीडित हुं अत: रुक्ष-तपश्चर्या से यह शरीर कृश एवं दुर्बल हो चूका है दैनिक आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करने में मैं अभी असमर्थ हुं, तो अब इस समय वह साधु अनुक्रम से उपवास छ? तप या आंबिल के द्वारा आहार का संक्षेप करे अर्थात् बारह वर्ष पर्यंत होनेवाली संलेखना विधि को यथाविधि करे... किंतु यदि ग्लान साधु को उतने समयनी संलेखना न हो शके तो अनुक्रम से तत्काल योग्य द्रव्य