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________________ 164 1-8-6-4 (234)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संलेखना स्वरूप आहार का संक्षेप करे... द्रव्य संलेखना से आहारादि का संक्षेप करके वह ग्लान साधु कषायों का भी संक्षेप करे... यद्यपि साधु को साधुजीवन में सदैव हि कषायों का संक्षेप तो करना हि है, किंतु इस संलेखना के अवसर पर विशेष प्रकार से कषायों का संक्षेप याने अल्पीभाव करे... कषायों को अल्प करने के बाद वह ग्लान साधु शरीर के नियमित क्रियानुष्ठानवाले हो, अथवा तो अर्चा याने लेश्या इस अर्थ के अनुसार वह ग्लान साधु शुभ लेश्यावाला हो... शुभ अध्यवसायवाला हो... अथवा तो अर्चा याने ज्वाला... अतः वह ग्लान साधु कषायाग्निकी ज्वाला का उपशमन करनेवाला हो... तथा फलकावस्थायी याने संसार की परिभ्रमणा स्वरूप आपदाओं में निर्वाण फल की कामनावाला... अथवा तो फलक याने लकडी का पाटीया-फलक... जिस प्रकार सुथार रंधे से लकडी के पटीये को चारों और से छोले तब लकडी न तो रोष करे न गुस्सा... इसी प्रकार ग्लान साधु को कोइ मनुष्य कठोर वचनों से तर्जन एवं ताडन करे तब भी वह ग्लान साधु कषाय के अभाव में गुस्सा न करे... अर्थात् वासीचंदनकल्प वह साधु शमभाव रखे... इस प्रकार प्रतिदिन आगारवाले पच्चक्खाण करते हुए वे ग्लान महामुनी जब प्रबल रोग का आवेग उत्पन्न हो तब मरण के लिये सावधान होते हैं... अर्थात् शरीर के संताप से रहित, निर्मम, जीवन एवं मरण के प्रति समभाववाले वे महामुनी धृति एवं संघयणबल के अनुसार पूर्व के महापुरुषों ने आचरे हुए इंगितमरण को प्राप्त करे... . v सूत्रसार : एकत्व भावना के चिन्तन में संलग्न मुनि अनासक्त भाव से रूक्ष आहार करते हुए शरीर में क्षीणता एवं दुर्बलता का अनुभव करे और अपनी मृत्यु को निकट जान ले तो उस समय वह आहार का त्याग करके कषायों को उपशान्त करने का प्रयत्न करे। इस तरह कषायों को उपशान्त करने से उसे समाधि भाव की प्राप्ति होगी। क्योंकि- चित्त में अशान्ति का कारण कषाय वृत्ति है, उसका नाश होते ही अशान्ति भी समाप्त ह्ये जाएगी और साधक परम शान्ति को प्राप्त कर लेगा। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘समाहियच्चे' का अर्थ है- जिस साधक ने सम्यक्तया शरीर एवं मन पर अधिकार कर लिया है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह निकला कि- कषायों पर विजय पाने वाला साधक ही समाधिस्थ कहलाता है। ‘फलगावयट्ठी' शब्द से यह बात परिपुष्ट होती. है। जैसे काष्ठ फलक शीत-ताप आदि को बिना किसी हर्ष शोक सहता है तथा कारीगर की आरी के नीचे आकर कटने पर भी अपने रूप में रहता है। उसी तरह साधक को प्रत्येक
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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