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________________ 114 1-8-1-5 (214) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D III सूत्रार्थ : ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं तथा विदिशाओं में रहने वाले जीवों में उपमर्दन रूप दंड समारम्भ को ज्ञान से जानकर मर्यादाशील भिक्षु स्वयं दंड का समारम्भ न करे और अन्य व्यक्ति से दंड समारम्भ न करावे तथा दंड समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। वह ऐसा माने कि- जो लोग इन पृथ्वी आदि कार्यों में दण्ड समारंभ करते हैं, उनके कार्य से हम लज्जित होते हैं। अतः हिंसा अथवा मृषावाद आदि दंड से डरने वाला बुद्धिमान साधु-पुरुष हिंसा के स्वरूप को जानकर दण्ड का समारम्भ न करे। IV टीका-अनुवाद : ऊर्ध्व अध: एवं तिर्यक् दिशाओं में और विदिशाओं में जो एकेंद्रियादि जीव हैं, उनकी विराधना स्वरूप जो आरंभ एवं समारंभ है, उनको ज्ञ परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन समारंभो का मेधावी मुनी त्याग करें... वह इस प्रकार- संयम-मर्यादा में रहा हुआ मुनी चौदह प्रकार के भूतग्राम स्वरूप पृथ्वीकायादि जीवों की विराधना स्वरूप दंड स्वयं न करें, अन्यों के द्वारा दंड-समारंभ न करावें और जो लोग पृथ्वीकायादि जीवों का दंड-समारंभ करतें हैं; उनकी अनुमोदना न करें... तथा वे मुधावी मुनी कहते हैं कि- जो लोग त्रिविध त्रिविध से दंड-समारंभ करते हैं, वे देखकर हम लज्जित होते हैं, क्योकि- पृथ्वीकायादि जीवों में कीया हुआ दंड-समारंभ बहोत भारी अनर्थ के लिये होता है... ऐसा जाननेवाले दंडभीत मेधावी मुनी जीव हिंसा स्वरूप दंड और अन्य मृषावादादि दंड का समारंभ नहि करतें... अर्थात् योग त्रिक याने मन वचन एवं काया से तथा करण त्रिक याने करण करावण एवं अनुमोदन स्वरूप दंड-समारंभ का त्याग करते हैं... यहां "इति" शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है; एवं ब्रवीमि शब्द से पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहतें हैं कि- वर्धमान स्वामीजी के मुखारविंद से हमने जो सुना है; वह मैं तुम्हे कहता हूं... V सूत्रसार : पूर्व सूत्र में हम देख चुके हैं कि- देश-काल की परिज्ञा करके पाप से निवृत्त होने में हि धर्म है। प्रस्तुत सूत्र में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि- भिक्षु को पाप कर्म से निवृत्त होना चाहिए। क्योंकि- पाप कर्म के संयोग से चित्त वृत्तियों में चंचलता आती है। अतः मन को शान्त करने के लिए साधक को हिंसा आदि दोषों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। साधु छ: काय पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति एवं त्रस काय के जीवों का स्वयं आरम्भ-समारम्भ न करें अन्य व्यक्ति से समारंभ न करावे और आरम्भ करने वाले अन्य व्यक्ति का समर्थन भी न करें इत्यादि... इसी तरह मृषावाद, स्तेय आदि सभी दोषों का त्रिकरण और त्रियोग से त्याग करना चाहिए। हिंसा आदि दोषों से निवृत्त होने रूप इस
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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