________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका . 1 - 8 - 1 - 5 (214) : 113 ये सब-कथन अपेक्षा विशेष से किए गए हैं। तीन याम में अस्तेय और ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह में समाविष्ट किया गया है... परिग्रह का अर्थ तृष्णा, लालसा एवं पदार्थों की भोगेच्छा है अतः तृष्णा के कारण से जीव चोरी करता है और तृष्णा, आकांक्षा एवं भोगेच्छा का ही दूसरा नाम अब्रह्मचर्य है। अत: चोरी एवं अब्रह्म का परिग्रह में समावेश कर लिया गया है। इससे व्रतों की संख्या तीन रह गई। चार व्रतों में ब्रह्मचर्य का अपरिग्रह में समावेश किया गया है और पांच व्रतों में सब को अलग अलग खोलकर रख दिया है, जिससे कि- साधारण व्यक्ति भी सरलता से समझ सकें! इस तरह त्रियाम, चर्तुयाम और पंचयाम में केवल संख्या का भेद है, सिद्धांत का नहीं। क्योंकि- सर्वज्ञ पुरुषों के सिद्धान्त में परस्पर विरोध नहीं होता है। इस तरह प्रस्तुत सूत्र में त्रियाम धर्म का उपदेश दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि- व्यक्ति किसी भी समय में धर्म के स्वरूप को समझकर अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। जागनेवाले के लिए जीवन का प्रत्येक समय महत्त्वपूर्ण है। “जब जागे तब ही सवेरा' इस सूक्ति के अनुसार चाहे बाल्य काल हो या प्रौढकाल उसके लिए जीवन विकास का महत्त्वपूर्ण प्रभात है। मुमुक्षु पुरुष को पापकर्म से सर्वथा निवृत्त होकर प्रति समय संयम में संलग्न रहमा चाहिए। इसी बात को विशेष प्रकार से बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 214 // 1-8-1-5 उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियक्कं जीवेहि कम्मसमारंभेणं तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिज्जा, नेवण्णेहिं एएहिं काएहिं दंडं समारंभाविजा, नेवण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंते वि समणुजाणेजा, जे चऽण्णे एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति तेसिं पि वयं लज्जामो, तं परिण्णाय मेहावी तं वा दंडं अण्णं वा नो दंडभी दंडं समारंभिजासि तिबेमि // 214 / / // संस्कृत-छाया : ऊर्ध्वं-अधः-तिर्यक्-दिक्षु सर्वतः सर्वाः च, प्रत्येकं जीवेषु कर्मसमारम्भः, तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतेषु कायेषु दण्डं समारभेत, न चाऽन्यः एतेषु कायेषु दण्डं समारम्भयेत्, नैवाऽन्यान् एतेषु कायेषु दण्डं समारभमाणान् समनुजानीयात्, ये च अन्ये एतेषु कायेषु दण्ड समारभन्ते तैः अपि वयं लज्जामः, तं परिज्ञाय मेधावी तं वा दण्डं अन्यद् वा दण्डं, दण्डभी: न समारभेत इति ब्रवीमि // 214 //