________________ 112 // 1-8-1 - 4 (213) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कुछ लोग कहते हैं कि- हम जंगलों में रहते हैं, कन्द-मूल खाते हैं, इसलिए हम धर्म-निष्ठ हैं। इस विषय में सूत्रकार कहते हैं कि- धर्म ग्राम या जंगल में नहीं है और कन्दमूल खाने में भी धर्म नहि है। किंतु धर्म विवेक में है, जीवाजीव आदि पदार्थों का यथार्थ बोध करके शुद्ध आचार का पालन करने में धर्म है, प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की रक्षा करने में धर्म है। __ भगवान ने त्रियाम धर्म का उपदेश दिया है। स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान में कहा है कि- प्रथम, मध्यम और अन्तिम तीन याम- जीवन की तीन अवस्थाएं हैं। इन तीनों यामों में सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्म पया जा सकता है, मनुष्य श्रद्धानिष्ठ बन सकता है, त्याग, व्रत एवं प्रव्रज्या-दीक्षा को स्वीकार कर सकता है। आगम में दीक्षा के लिए जघन्य 8 वर्ष की आयु बताई है अर्थात् 8 वर्ष की आयु में मनुष्य संयम साधना के योग्य बन जाता है। इसी. . दृष्टि को सामने रखकर कहा गया है कि- भगवान ने त्रियाम धर्म का उपदेश दिया है। भगवान का उपदेश किसी भी देशकाल विशेष से आबद्ध नहीं है, वह धर्मोपदेश तो पाप से निवृत्त होने में हि पर्यवसित होता है। वैदिक परम्परा में सन्यास के लिए मात्र अन्तिम अवस्था निश्चित की गई है और संन्यासी अरण्यवासी होता है। परन्तु, जिनेश्वर प्रभु ने त्याग भावना को किसी काल-अवस्था या देश से बांधकर नहीं रखा। क्योंकि- मन में त्याग की जो उदात्त भावना आज उदबद्ध हई है, वह अन्तिम अवस्था में रहेगी या नहीं. ? यदि त्याग की भावना बनी भी रही; तब भी क्या पता ? कि- तब तक जीवन रहेगा या बीच में ही मनुष्य मरण के मुख में चल पड़ेगा। अत: भगवान महावीर ने कहा है कि- जब आत्मा में त्याग की भावना जगे, उसी समय उसे साकार रूप दे दो। कालमरण का कोई विश्वास नहीं है कि- वह मनुष्य को कब आकर दबोच ले, अतः शुभ कार्य में समय मात्र भी प्रमाद मत करो। किसी भी काल एवं देश की प्रतीक्षा मत करो। जिस देश और जिस काल में... काल भले ही वह बाल्यकाल हो; यौवनकाल हो या वृद्ध काल हो, वैराग्य वाले कोइ भी काल में त्याग के पथ पर बढ़े चलो। वस्तुतः, धर्म सभी काल में आराधां जा सकता है। धर्म के लिए उम्र काल आवश्यक नहीं है, किंतु आवश्यक है- मात्र पाप से, हिंसा आदि दोषों से एवं विषयकषाय से निवृत्त होना। अत: जिस समय मनुष्य पाप कार्य से निवृत्त होता है, उसी ही समय वह धर्म की साधना कर सकता है। इसके अतिरिक्त आचार्य शीलांक ने याम शब्द का अर्थ व्रत किया है और प्राणातिपात, मृषावाद एवं परिग्रह के त्याग को तीन याम कहा है और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को भी तीन याम बताया है। त्रियाम का तीन व्रत के रूप में उल्लेख अपेक्षा विशेष से किया गया है। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर के शासन में पांच याम-व्रत और शेष 22 तीर्थंकरों के शासन में चार याम-व्रत का उल्लेख मिलता है। इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। क्योंकि