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________________ 32 // 1-6-2-2(195) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन // संस्कृत-छाया : वस्त्रं पतद्ग्रहः (पात्रं) कम्बलं पादपुञ्छनकं व्युत्सृज्य, अनुपूर्वेण, अनधिसहमानाः परीषहान् दुरधिसहनीयान्, कामान् ममायमानस्य इदानीं वा मुहूर्तेन वा अपरिमाणाय भेदः, एवं स: आन्तरायिकैः कामैः आकेवलिकैः अवतीर्णाः च एते // 195 // III सूत्रार्थ : वे कुशील मोहनीय कर्म के उदय से संयम परित्याग के समय संयम के साधन उपकरणों को भी छोड़ देते हैं। उनमें से कोई एक तो संयम के उपकरण - वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणादि का सर्वथा परित्याग करके देशविरति धर्म को ग्रहण कर लेते हैं, तथा कुछ अविरति सम्यग् दृष्टि बन जाते हैं और कुछ धर्म से सर्वथा पतित हो जाते हैं, क्यों कि- असहनीय कठिन परीषहों से विषम कर्म अनुक्रम अथवा युगपद से उदय में आए हुए हैं, अतः उन कर्मो से पराजित होकर संयम का परित्याग कर देते हैं। तथा पापोदय से काम-भोगों में अधिक ममत्व रखने वाले उन असंयमी पुरुषों के शरीर का तत्काल ही अथवा मुहूर्त मात्र में अथवा कुछ और अधिक समय में अपरिमितकाल के लिए आत्मा से भेद-विनाश हो जाता है। इस प्रकार विघ्नों और दुःखों से युक्त जो विषय-भोग हैं, उनके निरन्तर सेवन से वे असंयतपुरुष संसार समुद्र को पार नहीं कर सकते। वास्तव में कामी पुरुष काम भोगों से अतृप्त रहकर ही शरीर का परित्याग कर देते हैं अर्थात् वे भोगों से कभी भी तृप्त नहीं होते हैं। IV टीका-अनुवाद : कितनेक प्राणी कोटी-भवो में दुर्लभ ऐसा मनुष्य जन्म पाकर, और संसार-समुद्र को तैरने के लिये समर्थ ऐसे बोधि याने जिनशासन (सम्यक्त्व) को पाकर, तथा मोक्ष-वृक्ष के बीज समान सर्वविरति स्वरूप चारित्र का स्वीकार करके संयमाचरण करते करते जब कभी आत्म प्रदेशों में अशुभ निमित्त पाकर अशुभ कर्मो का उदय होवे तब कलुषित अंत:करण वाला वह साधु कर्माधिन होकर संयमाचरण का त्याग करता है... क्योंकि- कामविकार का आवेग दुर्निवारणीय होता है, तथा मानसिक आकुलव्याकुलता बढती है, पांचों इंद्रियां अपने अपने विषय में लोलुप (आसक्त) होती हैं तथा प्रबल मोहनीय कर्म के उदय से अनादिकाल से आसेवित विषय भोगों में मधुरता दीखती है, और अपयश:कीर्ति कर्म की उत्कटता से भविष्य काल का विचार कीये बिना हि अकार्य याने प्रमादाचरण का स्वीकार करके मात्र वर्तमान काल के कामभोगों में हि मग्न होकर कुलक्रम से आये हुए अच्छे आचरण को छोडकर वह पापात्मा साधु जीवन से भ्रमित होता है... अर्थात् संयम के धर्मोपकरण का त्याग करता है... जैसे कि- वस्त्र- (साधु वेष) पात्र, कंबल, पात्र के उपकरण झोली पल्ले इत्यादि एवं रजोहरण
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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