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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-2 - 2 (195) 31 भाव को प्राप्त कर श्रुत धर्म एवं चारित्र धर्म को जानकर और यथाविधि धर्म को स्वीकार करके भी कितनेक साधु तथाविध भवितव्यता के कारण से धर्म का पालन करने में समर्थ नहि होतें... क्योंकि- वे कुशील याने अशुभ कर्मोदय से काम विकारों के परवश होते हैं; अतः पंचाचारात्मक धर्मानुष्ठान में समर्थ नहि होतें... अब वे कुशील साधु जो करतें हैं; वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : __ कुछ व्यक्ति श्रुत और चारित्र धर्म का यथार्थ स्वरूप समझकर संयम-साधना के पथ पर चलने का प्रयत्न करते हैं। उस समय मोह एवं राग में आसक्त एवं आतुर व्यक्ति उन्हें उस मार्ग से रोकने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, प्रबल वैराग्य के कारण वे पारिवारिक बन्धन से मुक्त होकर संयम साधना में प्रविष्ट होते हैं। ब्रह्मचर्य को स्वीकार करने वाले मुनि या श्रावक के व्रतों के परिपालक श्रमणोपासक धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर उसका परिपालन करते हैं। परन्तु, कुछ व्यक्ति धर्म के स्वरूप को जानते हुए भी मोहोदय के कारण पंचाचारात्मक संयम-साधना पथ से भ्रमित हो जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि- श्रमण एवं श्रमणोपासक दोनों मोक्ष मार्ग के साधक हैं। श्रमणोपासक पूर्णत: त्यागी न होने पर भी मोक्ष मार्ग का देशतः आराधक है। क्योंकि- उसका लक्ष्य एवं ध्येय मोक्ष हि है, कि-जो ध्येय साधु का है। अतः आत्म विकास का मार्ग दोनों के लिए उपादेय है। मुमुक्षु साधक के लिए यह आवश्यक है कि- वह मोह का क्षयोपशम करके समभाव पूर्वक महाव्रत या अणुव्रत रूप धर्म का यथाविधि पालन करे। ..'वसु' और 'अनुवसु' शब्द का वृत्तिकार ने क्रमश: वीतराग एवं वीतरागानुरूप सराग अर्थ किया है। इसके अतिरिक्त उक्त शब्दों से श्रमण-साधु एवं श्रमणोपासक- श्रावक अर्थ भी ग्रहण किया गया है। जो व्यक्ति संयम का स्वीकार करके जब अकस्मात् मोहोदय से भ्रमित हो जाता है, तब उस की क्या स्थिति होती है, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र में करते हैं। I . सूत्र // 2 // // 195 // 1-6-2-2 . वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिजा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अइवण्णे चेए॥ 195 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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