________________ 30 卐१-६-२-१(१९४) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 2 # कर्मविधूननम् // प्रथम उद्देशक कहा, अब दूसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां यह परस्पर संबंध यह है कि- प्रथम उद्देशक में अपने स्वजनादि का त्याग कहा, किंतु यदि वह मुनी पंचाचारात्मक संयमानुष्ठानों के द्वारा कर्मो की निर्जरा करे तब हि स्वजनादि का त्याग सफल होवे... अत: यहां दुसरे उद्देशक में कर्मो के विधूनन याने क्षय के लिये उपक्रम करतें हैं... इस संबंध से आये हुए प्रस्तुत दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 194 // 1-6-2-1 __ आउरं लोगमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अनुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला॥ 194 // II संस्कृत-छाया : __ आतुरं लोकं आदाय त्यक्त्वा पूर्वसंयोगं, हित्वा उपशमं उषित्वा ब्रह्मचर्ये, वसुः वा अनुवसुः वा, ज्ञात्वा धर्मं यथा तथा, यथा एके तं न शक्नुवन्ति कुशीलाः॥ 194 / / III सूत्रार्थ : स्नेह राग में आसक्त माता-पिता आदि के स्वरूप को जानकर, पूर्वसंयोग माता-पिता के सम्बंध को छोड़कर; उपशम को प्राप्त कर। ब्रह्मचर्य में रहकर, साधु अथवा श्रावक; यथार्थ रूप से धर्म को जानकर भी मोहोदय से कुशील बुरे आचार वाले कुछ व्यक्ति उस धर्म का पालन नहीं कर सकते। IV टीका-अनुवाद : स्नेहानुराग से या वियोग के कारण से होनेवाली कार्यों की कठिनाइओं से कामरागातुर (चिंतित) चिंतावाले मात-पिता पुत्र पत्नी आदि को सम्यग् ज्ञान से जानकर एवं मात-पितादि के पूर्व-संबंधो का त्याग करके तथा उपशम भाव को पाकर एवं ब्रह्मचर्य में निवास करके. वह मनुष्य वसु याने साधु हो या अनुवसु याने श्रावक होवे... वसु याने कषायों की मलीनता दूर होने से वीतराग तथा अनुवसु याने वीतराग के अनुरूप सराग... अन्य जगह भी कहा है कि- वसु याने वीतराग, जिन या संचय (धन) तथा अनुवसु याने सराग, स्थविर या श्रावक