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________________ 118 // 1-8-2-1(215); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - यथासंभव जानीयेगा... जैसे कि- गच्छवासी स्थविर कल्पवाले साधुओं को श्मशान भूमी में रहना बैठनादि भी उचित नहि माना है, क्योंकि- प्रमादादि स्खलनाओं में व्यंतर-देव आदि के उपद्रव होवे... तथा जिनकल्प के लिये सत्त्व-भावना को भावित करनेवालों को भी स्मशानभूमी में कार्योत्सर्ग करना हि उचित माना है... जब कि- जिन्हों ने जिनकल्प प्रतिमा का स्वीकार कीया है, उनको तो विहार क्रम में जहां चतुर्थ प्रहरका प्रारंभ हो, वहां रहना होता है, चाहे वह जगह नगर हो या श्मशान हो... अथवा यह सूत्र जिनकल्पवालों की अपेक्षा से कहा गया है... इसी प्रकार अन्य सूत्रपदों में भी यथासंभव उचित विधान कीजीयेगा... ___तथा शून्यगृह में या पर्वत की गुफा में या अन्य कोइ भी गांव आदि के बाहार की भूमी-स्थान में रहे हुए साधु को देखकर कोइ प्रकृति भद्रक गृहस्थ सोचे कि- यह साधुजन आरंभ-समारंभों के त्यागी हैं तथा निर्दोष आहार प्राप्त होने पर हि भोजन करनेवाले हैं तथा पापकर्मो के पश्चातापवाले हैं और सत्य एवं शुचि धर्मवाले हैं; अत: अक्षय-पात्र के समान हैं, अतः इन्हे उचित दान देना चाहिये ऐसा सोचकर साधु के पास आकर कहता है कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! मैं संसार-समुद्र को तैरना चाहता हूं; अतः मैंने आपके लिये आहारादि अशन पान खादिम एवं स्वादिम तथा वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, आदि वस्तु, प्राणी, भूत, जीव एवं सत्त्वादि जीवों का मर्दन विराधन करके तैयार कीये हुए हैं... . यहां सूत्रकार आचार्यजी कहते हैं कि- आहारादि तैयार करने में कहिं चारों प्रकार के जीव या कहिं एक या दो या तीन प्रकार के जीवों की हिंसा-विराधना होती है... और साधु के लिये तैयार कीये हुए यह आहारादि अविशुद्ध कोटि के दोषवाले कहे गये हैं... जैसे कि- 1. आधाकर्म 2. औदेशिक 3. मिश्रजात 4. बादर प्राभृतिका 5. पूतिकर्म 6. अध्यवपूरक यह उद्गम के सोलह (16) दोष में से छह (6) दोष अविशुद्धकोटि है... ___ अब विशुद्ध कोटी कहते हैं... 1. क्रीत याने मूल्य से खरीदा हुआ... 2. प्रामित्य याने दुसरों के पास उच्छिना या उधार लेना... 3. आच्छिद्य याने दुसरों के पास से बल पूर्वक लेना... जैसे कि- राजा के आदेश के अन्य गहस्थ के पास से लेकर साध को देना... तथा 4. अनिसृष्ट याने अन्य की अनुमति के बिना हि अपने पास रही हुइ वस्तु-आहारादि साधु को देना... तथा 5. अभ्याहृत याने अपने घर से लाकर देता हूं; ऐसा कहे तथा और भी कहे कि- मैं आपको रहने के लिये मकान दूंगा... इत्यादि हाथ जोडकर विनंती के साथ आहारादि के लिये निमंत्रण करे... जैसे कि- इन आहारादि को वापरो (भोजन करो) और मेरे संस्कार कीये हुए इस मकान में रहो... इस परिस्थिति में सूत्रार्थ में विशारद गीतार्थ मुनी अदीन मनवाला होता हुआ उन आहारादि का निषेध करे... वह इस प्रकार- सहृदय समान
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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