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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 2 - 1 (215) 119 उम्रवाले या अन्य प्रकार के उस गृहस्थ को वह साधु कहे कि- हे आयुष्मन् गृहपति ! मैं आपके इस वचन का स्वीकार नहि करूंगा और आपके इस वचन का आदर भी नहि करुंगा... क्योंकि- आपने जो हमारे लिये आहारादि एवं मकान (वसति) जीवों का वध करके बनाया है, किंतु हे आयुष्मन् गृहपति ! हम तो ऐसे सावद्य अनुष्ठानों से विरत हैं; अत: आपके इन आहारादि का हम स्वीकार नहि करेंगे... इस प्रकार साधु दोषवाले आहारादि का निषेध करे... किंतु यदि कोइ गृहस्थ साधुओं का आचार जानकर गुप्त रीति से हि आहारादि तैयार करके दे, तब भी वह साधु सावधानी से वास्तविक स्वरूप को जानकर उन आहारादि का त्याग करें... V सूत्रसार : प्रथम उद्देशक में असम्बद्ध साधु के साथ सम्बन्ध नहीं रखने का उपदेश दिया गया है। परन्तु, इसके साथ अकल्पनीय पदार्थों-आहार-पानी, स्थान, वस्त्र, पात्र, आदि का त्याग करना भी आवश्यक है। अत: साधु को किस तरह का आहार-पानी लेना चाहिए एवं कैसे स्थान में रहना चाहिए, यह बात सूत्रकार यहां कहते हैं... ___यह हम देख चुके हैं कि- साधु आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होता है। अतः वह न तो स्वयं भोजन. बनाता है और न अपने लिए बनाया हुआ आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, मकान आदि का स्वीकार करता है। किंतु वह साधु गृहस्थ ने अपने एवं अपने परिवार के उपभोग के लिए बनाये हुए आहार-पानी आदि को अपनी मर्यादा के अनुरूप होने पर ही स्वीकार करता है। परन्तु, यदि उस साधु के निमित्त कोई गृहस्थ आरम्भ-समारम्भ करके आहारादि कोई भी पदार्थ तैयार करे, तो साधु को वह पदार्थ ग्रहण करना नहीं कल्पता है। . इसी तरह मुनि श्मशान में, शून्य स्थान में, पर्वत की गुफा में या इस तरह किसी अन्य स्थान में बैठा हो, खड़ा हो या शयन कर रहा हो, उस समय यदि कोई श्रद्धानिष्ठ भक्तगृहस्थ आकर मुनि से प्रार्थना करे कि- मैं आपके लिए भोजन तैयार करता हुं, तथा वस्त्रपात्र आदि खरीद कर लाता हूं और रहने के लिए मकान भी बनवा देता हूं। उस समय मुनि उसे कहे कि- हे देवानुप्रिय ! मुनि को ऐसा भोजन एवं वस्त्र-पात्र आदि लेना नहीं कल्पता है। क्योंकि- मैंने आरम्भ-समारम्भ का त्रिकरण और त्रियोग से त्याग कर दिया है। अत: मेरै लिए भोजन आदि बनाने, खरीदने आदि में अनेक तरह का आरम्भ होगा, अनेक जीवों का नाश होगा, इसलिए मैं ऐसी कोई वस्तु स्वीकार नहीं कर सकता हूं। ___ इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि- इस तरह की प्रार्थना जैन साधु के आचार से अपरिचित व्यक्ति ही कर सकता है। यद्यपि बौद्ध आदि भिक्षु गृहस्थ का निमंत्रण स्वीकार करते हैं। तथा अन्य मत के बहुत से साधु-संन्यासी गृहस्थों का निमन्त्रण स्वीकार करते हैं। अतः उनकी वृत्ति को देखकर कोई गृहस्थ जैन मुनि को भी निमन्त्रण दे, तो मुनि उसे स्वीकार
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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