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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 -4 -15 (332) 321 वश में रखने का प्रयत्न करे। यह प्रक्रिया आत्म विकास के लिए उपयुक्त है। इसमें योगों के साथ किसी तरह की जबरदस्ती न करके उन्हें सहज भाव से आत्म साधना में संलग्न किया जाता है। भगवान महावीर ने आत्म स्वरूप को पूर्णतया जानने के लिए अपने योगों को लोक के स्वरूप का चिन्तन करने में लगा दिया था। क्योंकि- किसी भी पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर ही आत्मा लोकालोक के यथार्थ स्वरूप को जान सकता है। जो व्यक्ति एक पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से नहीं जानता, वह संपूर्ण लोक के स्वरूप को भी नहीं जान सकता। अतः लोक के स्वरूप को जानने के लिए एक पदार्थ का संपूर्ण ज्ञान आवश्यक है। प्रत्येक पदार्थ गुण और पयार्य युक्त है और लोक भी द्रव्य है, अतः गुण और पर्याय युक्त है। अतः पदार्थ के सभी रूपों का ज्ञान करने का अर्थ है संपूर्ण लोक का ज्ञान करना और संपूर्ण लोक का ज्ञान करने का तात्पर्य है पदार्थ को पूरी तरह जानना। इस तरह एक के ज्ञान में समस्त लोक का परिज्ञान और समस्त लोक के ज्ञान में एक का परिबोध संबद्ध है। इसलिए भगवान महावीर सदा लोक एवं आत्मा के स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 15 // // 332 // 1-9-4-15 अकसाई विगय गेही य सद्दरूवेसु अमुच्छिए झाई। छउमत्थो वि परक्कममाणो, न पमायं सइंपि कुम्वित्था // 332 // II संस्कृत-छाया : अकषायी विगतगृद्धिश्च शब्दरूपेषु अमूर्छितो ध्यायति / छद्मस्थोऽपि पराक्रममाणः, न प्रमादं सकृदपि कृतवान् // 332 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर, कषाय को छोडकर,रस गृद्धि को त्यागकर एवं शब्दादि में अमूर्छित होकर धर्म ध्यान करते थे। छद्मस्थ होने पर भी सदनुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया। IV टीका-अनुवाद : मुख विकार एवं भूकुटी-भंग आदि से रहित होने के कारण से परमात्मा अकषायी
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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