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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-1-10 (274) 243 III सूत्रार्थ : ___ भगवान महावीर अनार्य पुरुषों के द्वारा कथित कठोर एवं असह्य शब्द से प्रतिहत न होकर, उन शब्दो को समभाव पूर्वक सहन करने का प्रयत्न करते थे। और प्रेम पूर्वक गाए गए गीतों एवं नृत्य की ओर ध्यान भी नहीं देते थे और दंडयुद्ध एवं मुष्टियुद्ध को देखकर विस्मित भी नहि होते थे। IV टीका-अनुवाद : सामान्य मनुष्य जो सहन न कर शके ऐसे कठोर कर्कश दुष्ट वचनों को जगत् के स्वभाव को जाननेवाले श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी शमभाव से सहन करतें थे है... और मोक्षमार्ग में निरंतर पराक्रम करते रहते थे... तथा प्रसिद्ध गीत-नृत्य के प्रसंग में परमात्मा को कौतुक स्वरूप कुतूहल नहि होता था... और जब कभी लोग परस्पर दंडयुद्ध या मुष्टियुद्ध करे, तब भी परमात्मा कुतूहलभाव नहि करते थे... किंतु सदा आत्मभाव में लीन रहकर धर्मध्यान हि करते थे... v सूत्रसार : साधक के लिए आत्म चिन्तन के अतिरिक्त सभी बाह्य कार्य गौण होते हैं। अतः वह अपनी निन्दा एवं स्तुति में उदासीन रहकर आत्म साधना में संलग्न रहता है। भगवान महावीर भी सदा अपनी साधना में संलग्न रहते थे। कोई उन्हें कठोर शब्द कहता, कोई गालियां देता, तब भी वे उस पर क्रोध नहीं करते थे। वे उसे समभाव पूर्वक सह लेते थे। इसी तरह कोई उनकी प्रशंसा करता या कहीं नृत्य-गान होता या मुष्टि युद्ध होता तो भी भगवान उस ओर ध्यान नहीं देते। क्योंकि- इस से रागद्वेष की भावना उत्पन्न होती है और राग-द्वेष से कर्म बन्ध होता है। अतः भगवान समस्त प्रिय-अप्रिय विषयों की ओर ध्यान नहीं देते हुए तथा अनुकूल तथा प्रतिकूल सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहते हुए आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। उनकी सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 10 // // 274 // 1-9-1-10 गढ़िए मिहुकहासु समयंमि, नायसुए विसोगे अदक्नु / एयाइ से उरालाई गच्छइ, नायपुत्ते असरणायाए // 274 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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