________________ 242 1- 9 - 1 - 9 (273) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन देते, उनके शरीर पर डंडे से प्रहार करते और उनके ऊपर शिकारी कुत्तों को छोड़ देते थे। इस तरह वे अबोध मनुष्य भगवान को घोर कष्ट देते थे / फिर भी भगवान महावीर उन पर कभी क्रोध नहीं करते थे। वे समभावपूर्वक समस्त परीषहों को सहते हुए विचरण करते थे। यह बात स्पष्ट है कि- कृतकर्म कभी भी निष्फल नहीं होते हैं... परंतु महापुरुष उस कर्मविपाक को समभाव पूर्वक सहन कर लेते हैं और अबधव्यक्ति हाय-हाय करके उसका वेदन करते हैं। जो व्यक्ति समभाव पूर्वक कृतकर्मों का फल सहन कर लेता है, वह समभाव की साधना से नए कर्मों के आगमन को रोक लेता है और पुरातन कर्म को क्षय करके मोक्ष पथ पर बढ़ जाता है। और जो आर्तरौद्रध्यान करता हुआ कृत कर्म के फल का संवेदन करता है, वह नए कर्मों का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता रहता है। भगवान महावीर इस बात को भली-भांति जानते थे। अत: वे परीषहों को अपने कृत कर्म का फल समझकर समभाव. . पूर्वक सहन करते रहे। ऐसा कहा जाता है कि- भगवान महावीर के कर्म, इस काल चक्र में हुए सभी तीर्थंकरों से अधिक थे, 23 तीर्थंकरों के कर्मों की अपेक्षा से भगवान महावीर का कर्मसमूह प्रायः अधिक था। अत: उसे क्षय करने के लिए भगवान महावीर ने कठोर तप एवं अनार्य देश में विहार किया। अनार्य देश के लोग धर्म एवं साधु जीवन से अपरिचित होने के कारण उन्हें अधिक . परीषह उत्पन्न होतें थे और उनको समभाव पूर्वक सहन करने से कर्मो की अधिक निर्जरा होती थी। आबद्ध कर्मों का क्षय करने के लिए भगवान अनार्य देश में पधारे और वहां उन्होंने समभाव से अनेक कष्टों को सहन क्रिया, परन्तु किसी भी व्यक्ति पर क्रोध एवं द्वेष नहीं किया। भगवान महावीर की यह उत्कृष्ट साधना सब के लिए सुकर नहीं है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 9 // // 273 // 1-9-1-9. फरुसाई दुत्तितिक्खाई, अइअच्च मुणी परक्कममाणो / अघायनदृगीयाई, दंडजुद्धाइं मुट्ठिजुद्धाइं // 273 // II संस्कृत-छाया : परूषाणि दुस्तितिक्षाणि, अतिगत्य मुनिः पराक्रममाणः / आख्यातनृत्यगीतानि, दण्डयुद्धानि मुष्टियुद्धानि // 273 //