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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 3255 उद्यम करते हुए संयमानुष्ठान का आचरण कर के आत्महित करतें हैं... ___ यहां “इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है... एवं “ब्रवीमि” पद का अर्थ यह है कि- पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी विनीत शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- हे जंबू ! मैंने परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से श्रवण की हुइ यह सभी बातें आपके आत्महित के लिये मैं तुम्हें कहता हुं... अर्थात् इस आचारांगसूत्र में कही गइ सभी बातें सर्वज्ञकथित हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा का विवेचन प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में किया जा चुका है। यहां इतना ध्यान रखें कि- यह गाथा प्रस्तुत अध्ययन के चारों उद्देशकों के अंत में दोहराई गई है। इसमें 'माहणेण मईमया' विशेषण कुछ गम्भीरता को लिए हुए है। यह स्पष्ट है कि- भगवान महावीर क्षत्रिय थे, फिर भी उनको मतिमान माहण-ब्राह्मण कहा है। इससे यह ज्ञात होता है कि- उस समय ब्राह्मण शब्द विशेष प्रचलित रहा है। और इससे श्रमण संस्कृति के इस सिद्धान्त का भी स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि- जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता, बल्कि कर्म से होता है। भगवान महावीर की साधना माहण की साधना थी। वे सदा अहिंसा एवं समता के झूले में झूलते रहे हैं। इसी कारण उन्हें मतिमान ब्राह्मण कहा है। कहां वैदिक यज्ञ अनुष्ठान में उलझा हुआ, हिंसक ब्राह्मण और कहा अहिंसा, दया एवं क्षमा का देवता सच्चा अहिंसक ब्राह्मण। दोनों की जीवन रेखा में आकाश-पाताल जितना अंतर है... अतः यही कारण है कि- सत्रकार ने वैदिक परम्परा में प्रचलित ब्राह्मण शब्द के सम्यग अर्थ को प्रकाशित करके घोर तपस्वी सकल जीव हितचिंतक भगवान महावीर को माहणब्राह्मण विशेषण दिया है। इसके अतिरिक्त आचारांग सूत्र में कई जगह आर्य, ब्राह्मण, मेधावी, वीर, बुद्ध, पंडित, वेदविद् आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे यह फलित होता है किभगवान महावीर ने अहिंसक जीवन के द्वारा इन शब्दों को गौरवान्वित किया और आर्य एवं आर्यपथ को भी दिव्य-भव्य एवं उन्नत बनाया। 'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने चतुर्थः उद्देशकः समाप्तः // सूत्रानुगम यहां पूर्ण हुआ, तथा सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप एवं सूत्र स्पर्शिकनियुक्ति भी यहां समाप्त पूर्ण हुइ.... अब “नय' का कथन करते हैं... नय सात हैं... 1. नैगमनय, 2. संग्रहनय, 3. व्यवहारनय, 4. ऋजुसूत्रनय, 5. शब्दनय, 6. समभिरूढनय, एवं 7. एवंभूतनय...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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